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________________ फफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफ धयाणि आयाम - विक्खंभेणं नाणादुमसंडमंडिउद्देसे सस्सिरीए पासादीए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे । तत्थ णं बहवे उसिणजोणिया जीवा य पोग्गला य उदगत्ताए वक्कमंति विउक्कमंति चयंति उववज्जंति तव्वतिरित्ते वि य णं सया समितं उसिणे उसिने आउयाए अभिनिस्सवति - एस णं गोयमा ! महातवोवतीरप्पभवे पासवणे, एस णं गोयमा ! महातवोवतीरप्पभवस्स पासवणस्स अट्ठे पण्णत्ते । सेवं भंते ! २त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नम॑सति । ॥ बितीए सए : पंचमो उद्देसो समत्तो ॥ २७ . [ प्र. ] भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, भाषण करते हैं, बतलाते हैं और प्ररूपणा करते हैं कि 'राजगृह नगर के बाहर वैभारगिरि के नीचे एक महान् ( बड़ा ) पानी का हद (कुण्ड ) है। उसकी लम्बाई-चौड़ाई अनेक योजन है। उसका अगला भाग अनेक प्रकार के वृक्ष समूह से सुशोभित है, वह सुन्दर है, यावत् दर्शकों की आँखों को सन्तुष्ट करने वाला है। उस हद में अनेक उदार मेघ संस्वेदित (उत्पन्न) होते, गिरते हैं, बरसते हैं। इसके अतिरिक्त (कुण्ड भर जाने के उपरान्त) उसमें से सदा परिमित (सीमित) गर्म-गर्म जल ( अप्काय) झरता रहता है।' भगवन् ! ( अन्यतीर्थिकों का ) इस प्रकार का कथन कैसा है ? क्या यह (कथन) सत्य है ? [ उ. ] हे गौतम ! अन्यतीर्थिक जो इस प्रकार कहते हैं, भाषण करते हैं, बतलाते हैं और प्ररूपणा करते हैं कि राजगृह नगर के बाहर यावत् गर्म-गर्म जल झरता रहता है, यह सब (पूर्वोक्त वर्णन ) वे मिथ्या कहते हैं; किन्तु हे गौतम! मैं इस प्रकार कहता हूँ और प्ररूपणा करता हूँ कि राजगृह नगर के बाहर वैभारगिरि के निकटवर्ती एक महातपोपतीर - प्रभव नामक झरना (प्रस्रवण) है। वह लम्बाईचौड़ाई में पाँच--सौ धनुष है। उसके आगे का भाग अनेक प्रकार के वृक्ष - समूह से सुशोभित है, सुन्दर है, प्रसन्नताजनक है, दर्शनीय है, रमणीय है और दर्शकों के नेत्रों को सन्तुष्ट करने वाला है। उस झरने में बहुत से उष्णयोनिक जीव और पुद्गल जल के रूप में उत्पन्न होते हैं, नष्ट होते हैं, च्यवते (च्युत होते ) हैं और उपचय ( वृद्धि) को प्राप्त होते हैं। इसके अतिरिक्त उस झरने में से सदा परिमित गर्म-गर्म जल ( अप्काय) झरता रहता है। हे गौतम ! यह महातपोपतीर - प्रभव नामक झरना है, हे गौतम ! यही महातपोपतीरप्रभव नामक झरने का अर्थ (रहस्य) है । ' 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर भगवान गौतम स्वामी श्रमण भगवान महावीर को वन्दन - नमस्कार करते हैं। ॥ द्वितीय शतक : पंचम उद्देशक समाप्त ॥ १. वर्तमान में भी यह गर्म पानी का कुण्ड राजगृह में वैभरिगिरि के निकट प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। वास्तव में यह पर्वत में से झर-झर कर झरने के रूप में ही आकर इस कुण्ड में गिरता है । कुण्ड स्वाभाविक नहीं है, यह तो सरकार द्वारा बना दिया गया है। बहुत से यात्री या पर्यटक आकर धर्मबुद्धि से इसमें नहाते हैं, कई चर्मरोगों को मिटाने के लिए इसमें स्नान करते हैं। इटली के आरमिआ के निकट भी एक ऐसा झरना है, जिसमें सर्दियों में गर्म पानी होता है और गर्मियों में बर्फ जैसा ठण्डा पानी रहता है। (देखें-संसार के १,५०० अद्भुत आश्चर्य, भाग २, पृष्ठ १५९) - सं. (शेष अगले पृष्ठ पर ) Second Shatak: Fifth Lesson द्वितीय शतक : पंचम उद्देशक (309) फफफफफफफफफफफफफफफफफफफ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002902
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2005
Total Pages662
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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