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पार्श्वनाथ के शिष्यानुशिष्य स्थविर भगवन्त, जो जातिसम्पन्न आदि अनेक विशेषणों से युक्त हैं, यहाँ पधारे हैं और यथाप्रतिरूप अवग्रह ग्रहण करके संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विहरण करते हैं।
हे देवानुप्रियो ! तथारूप स्थविर भगवन्तों के नाम - गोत्र को सुनने का भी महाफल होता है, तब फिर उनके सामने जाना, वन्दन - नमस्कार करना, उनका कुशल-मंगल (सुख - साता) पूछना और उनकी पर्युपासना (सेवा) करना, यावत् उनसे प्रश्न पूछकर अर्थ-ग्रहण करना, इत्यादि बातों के कल्याण रूप फल का तो कहना ही क्या ? अतः हे देवानुप्रियो ! हम सब उन स्थविर भगवन्तों के पास चलें और उन्हें वन्दन - नमस्कार करें, यावत् उनकी पर्युपासना करें। ऐसा करना अपने लिए इस भव में, तथा परभव में हितरूप होगा; यावत् परम्परा से (परलोक में कल्याण का) अनुगामी होगा । "
इस प्रकार बातचीत करके उन्होंने उस बात को एक-दूसरे के सामने स्वीकार किया। स्वीकार करके वे सब श्रमणोपासक अपने-अपने घर गये। घर जाकर स्नान किया, फिर बलिकर्म (कौए, कुत्ते, गाय आदि को अन्नादि दिया, तथा स्नान से सम्बन्धित तिलक आदि कार्य) किया। (तदनन्तर दुःस्वप्न आदि के फल नाश के लिए) कौतुक और मंगल - रूप प्रायश्चित्त किया। फिर शुद्ध (स्वच्छ ), तथा धर्मसभा आदि में प्रवेश करने योग्य (अथवा सज्जनों के पहनने योग्य) एवं श्रेष्ठ वस्त्र पहने। थोड़े-से (या कम वजन वाले) किन्तु बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को विभूषित किया। फिर वे अपने-अपने घरों से निकले और एक जगह मिले।
तत्पश्चात् वे सम्मिलित होकर पैदल चलते हुए तुंगिका नगरी के बीचोंबीच होकर निकले और जहाँ पुष्पवतिक चैत्य था, वहाँ आये। (वहाँ) स्थविर भगवन्तों ( को दूर से देखते ही) के पास पाँच प्रकार के अभिगम करके गये। वे ( पाँच अभिगम) इस प्रकार हैं- (१) (अपने पास रहे हुए) सचित्त द्रव्यों (फूल, ताम्बूल आदि) का त्याग करना, (२) अचित्त द्रव्य वस्त्र आदि को संकुचित करना अथवा मर्यादित करना, (३) एकशाटिक उत्तरासंग करना (एक पट के बिना सिले हुए वस्त्र - दुपट्टे को यतनार्थ मुख पर रखना), (४) स्थविर - भगवन्तों को देखते ही दोनों हाथ जोड़ना, तथा (५) मन को एकाग्र करना ।
इस प्रकार पाँच प्रकार का अभिगम करके वे श्रमणोपासक स्थविर भगवन्तों के निकट पहुँचे । निकट आकर उन्होंने दाहिनी ओर से तीन बार उनकी प्रदक्षिणा की, वन्दन - नमस्कार किया यावत् कायिक, वाचिक और मानसिक, इन तीनों प्रकार से उनकी पर्युपासना करने लगे । [ (१) वे हाथ-पैरों को सिकोड़कर शुश्रूषा करते हुए, नमस्कार करते हुए, उनके सम्मुख विनय से हाथ जोड़कर काया से पर्युपासना करते हैं। (२) जो-जो बातें स्थविर भगवान फरमा रहे थे, उसे सुनकर - 'भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यही तथ्य है, यही सत्य है, भगवन् ! यही इष्ट और विशेष इष्ट है', इस प्रकार वाणी से अनुकूल होकर विनयपूर्वक पर्युपासना करते हैं तथा (३) मन से (हृदय से ) संवेगभाव उत्पन्न करते हुए तीव्र धर्मानुराग में रंगे हुए विग्रह ( कलह ) और प्रतिकूलता (विरोध) से रहित बुद्धि वाले होकर, मन को अन्यत्र कहीं न लगाते हुए विनयपूर्वक उपासना करते हैं ।]
14. When the Shramanopasaks of Tungika city came to know of this they were very pleased and contented. They called one another and
द्वितीय शतक : पंचम उद्देशक
Second Shatak: Fifth Lesson
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