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पुप्फवतीए चेतिए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हित्ताणं संजमेणं तवसा । - अप्पाणं भावमाणा विहरंति।।
१२. उस काल और उस समय में पापित्यीय (भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के) स्थविर भगवान पाँच सौ अनगारों के साथ यथाक्रम से विचरते हुए, ग्रामानुग्राम जाते हुए, सुखपूर्वक विहार द 5 करते हुए तुंगिका नगरी के बाहर ईशानकोण में पुष्पवतिक चैत्य में पधारे। वहाँ पधारकर (अपने ! , अनुकूल मर्यादित स्थान की याचना करके) आज्ञा लेकर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए 5 विहरण करने लगे। वे स्थविर भगवन्त जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न, बलसम्पन्न, रूपसम्पन्न, विनयसम्पन्न, # । ज्ञानसम्पन्न, दर्शनसम्पन्न, चारित्रसम्पन्न, लज्जासम्पन्न, लाघवसम्पन्न, ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी (विशिष्ट
प्रभावयुक्त) और यशस्वी थे। उन्होंने क्रोध, मान, माया, लोभ, निद्रा, इन्द्रियों और परीषहों को जीत लिया था। वे जीवन (जीने) की आशा और मरण के भय से विमुक्त थे, वे कुत्रिकापणभूत (जैसे
कुत्रिकापण में तीनों लोकों की आवश्यक समस्त वस्तुएँ मिल जाती हैं, वैसे ही वे समस्त अभीष्ट पदार्थों में । की प्राप्ति में समर्थ अथवा समस्त गुणों की उपलब्धि से युक्त) थे। वे बहुश्रुत और बहुपरिवार वाले थे।
12. During that period of time a Sthavir Bhagavan (senior ascetic) of the Parshva tradition along with five hundred ascetic disciples, comfortably wandering from one village to another in course of his y usual itinerant way, arrived at Pushpavatika Chaitya located in the north-eastern direction outside Tungika city. Seeking a suitable place
and permission he spent his time enkindling his soul with ascetici discipline and austerities. That Sthavir Bhagavan was jatisampanna
(belonged to high castes), kulasampanna (came from noble families),
balasampanna (rich in physical strength), roop-sampanna (handsome), ! 5 vinayasampanna (modest), jnanasampanna (rich in knowledge),
darshan-sampanna (having profound perception/faith), hcharitrasampanna (strict adherent of ascetic-conduct), lajjasampanna
(shy of indulging in sinful activities) and laghav-sampanna (having minimum possessions as well as passions). ___He was brilliant and radiant with power (ojasvi) and aura (tejasvi), influential (varchasvi) and famous (yashasvi). He had conquered his anger, conceit, deceit, greed, senses, sleep and pain of torments. He was
free of the desire for life and fear of death. He was like a market place i (Kutrikapanbhoot) (As all essential commodities are available in a
market place, so was he with regard to all essential qualities and abilities to acquire everything desired). He was a great scholar with a large family of disciples.
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| द्वितीय शतक : पंचम उद्देशक
(293)
Second Shatak: Fifth Lesson
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