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________________ 卐 फ्र द्वितीय शतक : पंचम उद्देशक SECOND SHATAK (Chapter Two): FIFTH LESSON farafer NIRGRANTH (ASCETIC) 5 निर्ग्रन्थदेव परिचारणा-सम्बन्धी प्ररूपणा ASCETIC ON SEXUAL ACTIVITY १. [.] अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति भासंति पण्णवेंति परूवेंति - एवं खलु नियठे कलगए समाणे देवभूएणं अप्पाणेणं से णं तत्थ णो अन्त्रे देवे, नो अन्नेसिं देवाणं देवीओ अभिजुंजिय अभिजुंजिय परियारेइ ( १ ) णो अप्पणिच्चियाओ देवीओ अभिजुंजिय २ परियारेइ ( २ ) अप्पणामेव अप्पाणं विउव्विय २ परियारेइ (३) एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं दो वेदे वेदेइ, तं जहा - इत्थिवेदं च पुरिसवेदं च । एवं परउत्थियवत्तव्वया नेयव्वा जाव इत्थिवेदं च पुरिसवेदं च । से कहमेयं भंते ! एवं ? [ उ. ] गोयमा ! जं णं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति जाव इत्थिवेदं च पुरिसवेदं च । जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि भासामि, पण्णवेमि, परूवेमि एवं खलु नियंटे 卐 卐 5 चिरद्वितीएसु । से णं तत्थ देवे भवति महिड्डीए जाव दस दिसाओ उज्जोवेमाणे पभासेमाणे जाव पडिरूवे। से कालगए समाणे अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति महिड्डिएसु जाव महाणुभागेसु दूरगतीसु णं तत्थ अन्ने देवे, अन्नेसिं देवाणं देवीओ अभिजुंजिय २ परियारेइ ( १ ) अप्पणिच्चियाओ देवीओ फ्र 5 अभिजुंजिय २ परियारेइ (२) नो अप्पणामेव अप्पाणं विउब्विय २ परियारेइ (३) एगे वि य णं जीवे 卐 एगेणं समएणं एवं वेदं वेदेइ, तं जहा - इत्थिवेदं वा पुरिसवेदं वा, जं समय इत्थिवेदं वेदेइ णो तं समयं पुरिसवेयं वेइए, जं समयं पुरिसवेयं वेएइ णो तं समयं इत्थिवेयं वेएइ । इत्थवेयस्स उदएणं नो पुरिसवेदं वेएइ, पुरिस वेयस्स उदएणं नो इत्थिवेयं वेएइ । एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एगे वेदे वेएइ, 卐 卐 5 इत्थिं पत्थेइ । दो वि ते अन्नमन्नं पत्थति, तं जहा - इत्थी वा पुरिसं, पुरिसे वा इत्थिं । 卐 卐 तं जहा - इत्थवेयं वा पुरिसवेयं वा । इत्थी इत्थिवेएणं उदिण्णेणं पुरिसं पत्थेइ, पुरिसो पुरिसवेएणं उदिष्णेणं १. [ प्र. ] भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, भाषण करते हैं, बताते हैं और प्ररूपणा 5 करते हैं कि कोई भी निर्ग्रन्थ मरने पर देव होता है और वह देव, वहाँ (देवलोक में) दूसरे देवों के 卐 साथ, या दूसरे देवों की देवियों के साथ, उन्हें वश में करके या उनका आलिंगन करके, परिचारणा 5 (मैथुन - सेवन ) नहीं करता, तथा अपनी देवियों को वश 卐 परिचारणा नहीं करता । परन्तु वह देव वैक्रिय से स्वयं अपने ही दो रूप बनाता है। (जिसमें एक रूप देव 卐 फ्र का और एक रूप देवी का बनाता है।) यों दो रूप बनाकर वह, उस वैक्रियकृत (कृत्रिम) देवी के साथ परिचारणा करता है। इस प्रकार एक जीव एक ही समय में दो वेदों का अनुभव (वेदन) करता है, 卐 फ्र फ्र अन्यतीर्थिकों का कथन सत्य है ? 卐 卐 卐 करके या आलिंगन करके उनके साथ भी यथा - स्त्रीवेद का और पुरुषवेद का । भगवन् ! यह इस प्रकार कैसे हो सकता है ? अर्थात् क्या यह भगवतीसूत्र (१) (282) Jain Education International फफफफफ Bhagavati Sutra (1) For Private & Personal Use Only பிதிததமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிதத*த*தி* மிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமி***ழி www.jainelibrary.org
SR No.002902
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2005
Total Pages662
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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