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________________ ) ) ))) ) ) ) )) ) ) )) 5555555555555555555555555555555555553 (१३) किच्चं दुक्खं, फुसं दुक्खं, कज्जमाणकडं दुक्खं कटु कटु पाण-भूत-जीव-सत्ता वेदणं वेदेंतीति वत्तव्वं सिया। [प्र. ] श्री गौतम स्वामी पूछते हैं-'भगवन् ! क्या अन्यतीर्थिकों का उक्त प्रकार का यह मत सत्य है?' [उ. ] (स्वपक्ष) गौतम ! यह अन्यतीर्थिक जो कहते हैं-यावत् वेदना भोगते हैं, ऐसा कहना चाहिए, उन्होंने यह सब जो कहा है, वह मिथ्या कहा है। हे गौतम ! मैं ऐसा कहता हूँ कि जो चल रहा है, वह 'चला' कहलाता है और यावत् जो निर्जीर्णमाण है, वह निर्जीर्ण कहलाता है। (८) [प्र. ] दो परमाणु-पुद्गल आपस में चिपक जाते हैं। इसका क्या कारण है ? [उ. ] दो परमाणु-पुद्गलों में चिकनापन है, इसलिए दो परमाणु-पुद्गल परस्पर चिपक जाते हैं। इन दो परमाणु-पुद्गलों के दो भाग हो सकते हैं। दो परमाणु-पुद्गलों के दो भाग किये जायें तो एक तरफ एक परमाणु और एक तरफ एक परमाणु होता है। (९) तीन परमाणु-पुद्गल परस्पर चिपक जाते हैं। [प्र. ] तीन परमाणु-पुद्गल परस्पर क्यों चिपक जाते हैं ? [ [उ.] तीन परमाणु-पुद्गल इस कारण चिपक जाते हैं, कि उन परमाणु-पुद्गलों में स्निग्धता है। के इस कारण तीन परमाणु-पुद्गल परस्पर चिपक जाते हैं। उन तीन परमाणु-पुद्गलों के दो भाग भी हो 5 सकते हैं और तीन भाग भी हो सकते हैं। दो भाग करने पर एक तरफ एक परमाणु और एक तरफ दो # प्रदेश वाला एक द्वयणुक स्कन्ध होता है। तीन भाग करने पर एक-एक करके तीन परमाणु हो जाते हैं। + इसी प्रकार यावत्-चार परमाणु-पुद्गल में भी समझना चाहिए। परन्तु तीन परमाणु के डेढ़-डेढ़ (भाग) ॐ नहीं हो सकते। (१०) पाँच परमाणु-पुद्गल परस्पर चिपक जाते हैं और परस्पर चिपककर एक स्कन्धरूप बन जाते हैं। वह स्कन्ध अशाश्वत है और सदा उपचय तथा अपचय होता रहता है अर्थात्-वह बढ़ता卐 घटता भी है। (११) बोलने से पहले की भाषा, अभाषा है; बोलते समय की भाषा, भाषा है और बोलने के बाद फ्रकी भाषा भी अभाषा है। [प्र. ] वह जो पहले की भाषा, अभाषा है, बोलते समय की भाषा, भाषा है और बोलने के बाद की भाषा, अभाषा है; सो क्या बोलने वाले पुरुष की भाषा है, या नहीं बोलते हुए पुरुष की भाषा है ? __ [उ. ] वह बोलने वाले पुरुष की भाषा है, नहीं बोलते हुए पुरुष की भाषा नहीं है। (१२) (करने से) पहले की क्रिया दुःख का कारण नहीं है, उसे भाषा के समान ही समझना चाहिए। यावत्-यह क्रिया करने से दुःख का कारण है, न करने से दुःख का कारण नहीं है, ऐसा कहना चाहिए। (१३) कृत्य दुःख है, स्पृश्य दुःख है, क्रियमाण कृत दुःख है। उसे कर-करके प्राण, भूत, जीव और ॐ सत्व वेदना भोगते हैं; ऐसा कहना चाहिए। )) )) )) ) ) 卐55555555) प्रथम शतक: दशम उद्देशक (219) First Shatak: Tenth Lesson 8555555555555555555555555))))))55558 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002902
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2005
Total Pages662
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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