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१९. [प्र. ] से नूणं भंते ! कंखापदोसे खीणे समणे निग्गंथे अंतकरे भवति ? अंतिमसरीरिए वा, बहुमोहे वि य णं पुल्विं विहरित्ता अह पच्छा संवुडे कालं करेति तओ पच्छा सिझति बुज्झति, मुच्चति ? जाव अंतं करेइ ?
[उ. ] हंता गोयमा ! कंखापदोसे खीणे जाव अंतं करेति।
१९. [प्र. ] भगवन् ! क्या कांक्षाप्रदोष क्षीण होने पर श्रमणनिर्ग्रन्थ अन्तकर अथवा अन्तिम (चरम) शरीरी होता है ? अथवा पूर्वावस्था में बहुत मोह वाला होकर विहरण करे और फिर संवृत (संवरयुक्त) होकर मृत्यु प्राप्त करे, तो क्या तत्पश्चात् वह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होता है, यावत् सब दुःखों का अन्त करता है?
[उ. ] हाँ, गौतम ! कांक्षाप्रदोष नष्ट हो जाने पर यावत् सब दुःखों का अन्त करता है।
19. (Q.) Bhante ! On the destruction of dogma of other faith (kaanksha pradosh) does an ascetic become capable of terminating the cycles of rebirth during that life time (antakar) or does he reincarnate for the last time (charam-shariri) ? Also, if he initially moves about with excessive fondness but later blocks the inflow of karmas completely and then dies, does he become perfected (Siddha), enlightened (buddha), liberated (mukta), ... and so on up to... end all miseries?
[Ans.] Yes, Gautam ! On the destruction of dogma of other faith (kaanksha pradosh) an ascetic becomes capable of... and so on up to... end all miseries.
विवेचन : लाघव आदि पदों के अर्थ-लाघव-शास्त्रमर्यादा से भी अल्प उपधि रखना। अल्पेच्छा-आहारादि में अल्प अभिलाषा रखना। अमूर्छा-अपने पास रही उपधि में भी ममत्व (संरक्षणानुबन्ध) न रखना। अगृद्धिआसक्ति का अभाव। अर्थात्-भोजनादि के परिभोगकाल में अनासक्ति रखना। अप्रतिबद्धता-स्वजनादि या द्रव्यक्षेत्रादि में स्नेह या राग के बन्ध को काट डालना। कांक्षाप्रदोष-अन्य दर्शनों का आग्रह-आसक्ति अथवा राग। इसका दूसरा नाम कांक्षाप्रद्वेष भी है। जिसका आशय है-जिस बात को पकड़ रखा है, उससे विरुद्ध या भिन्न बात पर द्वेष होना। (वृत्ति, पत्रांक ९७) ___Elaboration-Laaghav-to have less possessions, even lesser than what is prescribed in scriptures. Alpechchha-to have minimal desire for food and other things. Amurchchha—absence of obsession for the limited possessions. Agriddhi-absence of covetousness for food and other things specially during consumption and use. Apratibaddhata-seclusion or detachment leading to breaking ties with kinfolk, material things and specific areas. Kaanksha pradosh-dogma of and obsession for other faith. It also means kaanksha pradvesh or dislike and aversion for anything contrary to one's ideas and beliefs. (Vritti, leaf 97)
First Shatak: Ninth Lesson
प्रथम शतक : नवम उद्देशक
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