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देवों की प्रकृति में लोभ की अधिकता होने से समस्त भंगों में 'लोभ' शब्द को बहुवचनान्त ही रखना चाहिए। यथा-असंयोगी एक भंग-(१) सभी लोभी। द्विकसंयोगी ६ भंग-(१) लोभी बहुत, मायी एक; (२) लोभी बहुत, मायी बहुत; (३) लोभी बहुत, मानी एक; (४) लोभी बहुत, मानी बहुत; (५) लोभी बहुत, क्रोधी एक; और (६) लोभी बहुत, क्रोधी बहुत। इसी प्रकार त्रिकसंयोगी के १२ भंग, चतुःसंयोगी के ८ भंग जान लेना चाहिए।
पृथ्वीकायिक में ३ शरीर-(औदारिक, तैजस्, कार्मण), शरीरसंघातरूप में मनोज्ञ-अमनोज्ञ दोनों प्रकार के
ल परिणमते हैं। इनमें भवधारणीय एवं उत्तरवैक्रियशरीर भेद नहीं होते। क्रमशः चार लेश्याएँ होती हैं। ये हुण्डक संस्थानी, एकान्त मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी (मतिश्रुताज्ञान), केवल काययोगी होते हैं। इसी तरह अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के दस ही द्वार समझने चाहिए। तेजस्काय और वायुकाय में देव उत्पन्न नहीं होते, इसलिए तेजोलेश्या और तत्सम्बन्धी ८० भंग नहीं होते। वायुकाय के ४ शरीर (आहारक को छोड़कर) होते हैं।
विकलेन्द्रिय जीवों से नारकों में अन्तर-चूँकि विकलेन्द्रिय जीव अल्प होते हैं, इसलिए उनमें एक-एक जीव भी कदाचित् क्रोधादि-उपयुक्त हो सकता है, विकलेन्द्रियों में मिश्रदृष्टि नहीं होती, आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान (अपर्याप्त दशा में पूर्वभव की अपेक्षा) होने से इनमें भी ८० भंग होते हैं। नारकों में जिन-जिन स्थानों
२७ भंग बतलाये गये हैं. उन-उन स्थानों में विकलेन्द्रिय में अभंगक कहना चाहिए। इनमें तेजोलेश्या नहीं होती। ये (विकलेन्द्रिय) सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि तथा ज्ञानी और अज्ञानी तथा काययोगी और वचनयोगी होते हैं। जहाँ नारकों के २७ भंग कहे हैं, वहाँ मनुष्यों में अभंगक हैं, क्योंकि मनुष्य सभी कषायों से उपयुक्त बहुत पाये जाते हैं। मनुष्यों में शरीर पाँच, संहनन छह, संस्थान छह, लेश्याएँ छह, दृष्टि तीन, ज्ञान पाँच, अज्ञान तीन आदि होते हैं। आहारक शरीर वाले मनुष्य अत्यल्प होने से ८० भंग होते हैं। केवलज्ञान में कषाय नहीं होता।
चारों देवों सम्बन्धी कथन में अन्तर-भवनपति देवों की तरह शेष तीन देवों का वर्णन समझना। ज्योतिष्क और वैमानिकों में कुछ अन्तर है। ज्योतिष्कों में केवल एक तेजोलेश्या होती है, वैमानिकों में तेजो, पद्म और शुक्ल, ये तीन शुभ लेश्याएँ पाई जाती हैं। वैमानिकों में नियमतः तीन ज्ञान, तीन अज्ञान पाये जाते हैं। असंज्ञी जीव ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न नहीं होते, इसलिए उनमें अपर्याप्त अवस्था में भी विभंगज्ञान होता है। (वृत्ति, पत्रांक ७३-७७)
॥ प्रथम शतक : पंचम उद्देशक समाप्त ॥ Elaboration-Difference between the nature of abode dwelling gods and infernal beings—Infernal beings have excess of anger whereas abode dwelling gods have excess of greed. That is why the 27 alternatives of inclinations in case of infernal beings have been stated in the order-- anger, conceit, deceit and greed, and those for abode dwelling gods have been stated in reverse order-greed, deceit, conceit and anger. As there is excess of greed in abode dwelling gods, in all alternatives greed should be stated in plural, for example—Just one alternative without combination-all greedy (1). Six alternatives for combination of twomany greedy and one deceitful (1), many greedy and many deceitful (2), many greedy and one conceited (3), many greedy and many conceited (4), many greedy and one angry (5), many greedy and many angry (6). In the same way twelve alternatives for combinations of three and eight alternatives for combination of four.
प्रथम शतक : पंचम उद्देशक
(139)
First Shatak : Fifth Lesson
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