SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 555555555555555555555555555555555555 dwelling gods) and at the highest among — (7) Taapas ( hermit) among Jyotishk Devas, (8) Kandarpik in Saudharma Kalp, (9) Charakparivrajak in Brahmalok Kalp, (10) Kilvishik in Lantak Kalp, (11) Tiryanch in Sahasrar Kalp, (12) Aajivak, (13) Aabhiyogik in Achyut Kalp, and (14) a faithless in ascetic garb in upper Graiveyaks. विवेचन : विशेष पदों की व्याख्या : असंयत भव्य द्रव्यदेव - (१) जो असंयत - चारित्र - परिणामशून्य हो, किन्तु भविष्य में देव होने योग्य हो, वह असंयत भव्य द्रव्यदेव है, अर्थात् जो साधु-समाचारी और साध्वाचार का पालन करता हो, किन्तु जिसमें आन्तरिक भाव से साधुता न हो, केवल द्रव्यलिंगधारी हो, ऐसा भव्य या अभव्य मिथ्यादृष्टि है। यद्यपि ऐसे असंयत भव्य द्रव्यदेव में महामिथ्यादर्शनरूप मोह की प्रबलता होती है, तथापि जब वह चक्रवर्ती आदि अनेक राजा-महाराजाओं द्वारा साधुओं का वन्दन- नमन, पूजा, सत्कार-सम्मान आदि करते देखता है तो सोचता है कि मैं साधु बन जाऊँ तो मेरी भी इसी तरह वन्दना, पूजा-प्रतिष्ठा आदि होने लगेगी; फलतः इस प्रकार की प्रतिष्ठामोह की भावना से वह श्रमणव्रत पालन करता है, आत्मशुद्धि के उद्देश्य से नहीं । उसकी श्रद्धा प्रव्रज्या तथा क्रियाकलाप पूर्ण है, वह आचरण भी पूर्णतया करता है, परन्तु चारित्र के परिणाम से शून्य होने से असंयत है। अविराधित संयमी - दीक्षाकाल से लेकर अन्त तक जिसका चारित्र कभी भंग न हुआ हो, वह अखण्डित संयमी है। इसे आराधक संयमी भी कहते हैं। विराधित संयमी - इसका स्वरूप अविराधित संयमी से विपरीत है। जिसने महाव्रतों का ग्रहण करके उनका भलीभाँति पालन नहीं किया है, संयम की विराधना की है, वह विराधित संयमी, खण्डित संयमी या विराधक संयमी है। अविराधित संयमासंयमी - जो देशविरति ग्रहण करके अन्त तक अखण्डित रूप से उसका पालन करता है उसे आराधक संयमासंयमी कहते हैं। विराधित संयमासंयमीजिसने देशविरति ग्रहण करके उसका भलीभाँति पालन नहीं किया हो, उसे विराधित संयमासंयमी कहते हैं । अंसज्ञी जीव - जिसके मनोलब्धि नहीं है, ऐसा असंज्ञी जीव अकामनिर्जरा करता है, इस कारण वह देवलोक जा सकता है। तापस- वृक्ष से गिरे : हुए पत्तों आदि को खाकर उदरनिर्वाह करने वाला बाल-तपस्वी । कान्दर्पिक- जो साधु हँसोड़-हास्यशील हो। ऐसा साधु चारित्रवेश में रहते हुए भी हास्यशील होने के कारण अनेक प्रकार की विदूषक की-सी चेष्टाएँ करता है । अथवा कन्दर्प अर्थात् काम-सम्बन्धी वार्त्तालाप करने वाला साधु भी कान्दर्पिक कहलाता है। चरकपरिव्राजक - गेरुए या भगवे रंग के वस्त्र पहनकर सामूहिक भिक्षा द्वारा आजीविका करने वाले त्रिदण्डी, कुच्छोटक आदि । किल्विषिक - जो ज्ञान का, केवली, धर्माचार्य और सब साधुओं का अवर्णवाद करता है और पापमय भावना वाला है, वह किल्विषिक साधु है। किल्विषिक साधु व्यवहार से चारित्रवान भी होते हैं। तिर्यंच - देशविरति श्रावकव्रत का पालन करने वाले घोड़े, गाय आदि । जैसे- नन्दन मणिहार का जीव मेंढक के रूप में श्रावकव्रती था । आजीविक - ( 9 ) नग्न रहने वाले गोशालक के शिष्य, (२) लब्धिप्रयोग करके अविवेकी लोगों द्वारा ख्याति प्राप्त करने या महिमा - पूजा के लिए तप और चारित्र का अनुष्ठान करने वाले, और (३) अविवेकी लोगों में चमत्कार दिखलाकर अपनी आजीविका उपार्जन करने वाले । आभियोगिक-विद्या और मंत्र आदि का या चूर्ण आदि के योग का प्रयोग करना और दूसरों को अपने वश में करना अभियोग कहलाता है। जो साधु व्यवहार से तो संयम का पालन करता है, किन्तु मंत्र, तंत्र, यंत्र, भूतिकर्म, प्रश्नाप्रश्न, निमित्त, चूर्ण आदि के प्रयोग द्वारा दूसरे को आकर्षित करता है, वशीभूत करता है, वह आभियोगिक कहलाता 51 प्रथम शतक: द्वितीय उद्देशक (77) Jain Education International फफफफफफफफफफफफ First Shatak: Second Lesson For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002902
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2005
Total Pages662
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_bhagwati
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy