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किरणवेगऔरनाग
आठवें स्वर्ग का आयुष्य पूर्ण कर मरुभूति का जीव एक राजकुमार बना। पुत्र-जन्म पर राजा ने खूब उत्सव मनाया। रानी ने कहा-"हमारे पुत्र का मुख सूर्य किरणों से भी | अधिक तेजस्वी है। इसलिए इसका नाम किरणवेग रखेंगे।"
किरणवेग ने गुरुकुल में रहकर विद्याध्ययन किया। अनेक प्रकार की विद्याएँ सीखीं। | सुन्दर राजकुमारी के साथ उसका विवाह हुआ। फिर वह राजा बन गया।
एक बार सुरगुरु नाम के आचार्य पधारे। राजा किरणवेग उपदेश सुनने गया। प्रवचन सभा में मुनिराज ने कहा-"पूर्वजन्म के शुभ कर्मों से यहाँ आप मनुष्य बने हैं। सब प्रकार के सुख-साधन प्राप्त हुए हैं। अगर यहाँ पर शुभ कर्म नहीं करोगे तो अगले जन्म में क्या मिलेगा?"
मुनिराज ने आगे कहा-"लोग समझते हैं धन से, बल से और बुद्धि से सब कुछ पाया जा सकता है। धर्म की क्या जरूरत है ? परन्तु सोचो, धन, बल और बुद्धि किससे मिलती है?" _मुनिराज ने ही उत्तर दिया-"धर्म से ! तप, जप, दान, तीर्थयात्रा आदि शुभ कर्मों से ही यह तीनों चीजें मिलती हैं। और यह सब इसी मनुष्य-जन्म में ही हो सकता है। तप, संयम, दान मनुष्य ही कर सकता है, देवता नहीं।" __मुनिराज का उपदेश सुनकर राजा ने दीक्षा ग्रहण कर ली। शास्त्र अध्ययन कर मुनि किरणवेग अनेक प्रकार के कठोर तप करते हुए विचरने लगे।
एक बार मुनि के मन में आया-'पुष्करवर द्वीप में अरिहंतों की शाश्वत प्रतिमाएँ हैं। उनकी वन्दना करने का महान् फल है।' __विद्याबल से मुनि आकाशमार्ग से चलकर पुष्करवर द्वीप में आये। वहाँ शाश्वत जिनप्रतिमाओं की भाव वन्दना की। अहोभाव के साथ अरिहंत स्तुति की।
फिर सोचा-'अब वैताढ्य गिरि पर जाकर काउसग्ग करूँ।' व मुनि वैताढ्य पर्वत पर आये। एक वृक्ष के नीचे काउसग्ग प्रतिमा (ध्यान) धारण कर खड़े हो गये। अनेक वर्ष बीत गये। सर्दी, गर्मी, वर्षा के बीच मुनि पत्थर की प्रतिमा की तरह ध्यान में स्थिर खड़े रहे।
कुर्कुट नाग मरकर नरक में गया था। वहाँ से निकलकर वह इसी पर्वत पर एक भयंकर विषधर सर्प बना। एक दिन उस नाग ने मुनि को ध्यान में खड़ा देखा तो उसके भीतर क्रोध
क्षमावतार भगवान पार्श्वनाथ
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