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तृष्णा का जाल
कपिल को रातभर नींद नहीं आई। बार-बार उठकर वह आकाश की तरफ देखने लगता
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कहीं मुझे विलम्ब न हो जाय ? यदि कोई दूसरा मुझसे पहले पहुँच गया तो दो मासा सोना नहीं मिलेगा।
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अरे, कौन है? कहाँ जा रहा है ?
कपिल सहम गया। एक भवन की ओट में छुप गया। सोचने लगा
पहरेदार ने मुझे कहीं पकड़ लिया तो पूछेगा रात को कहाँ जा रहा है, फिर तो बा > का भेद खुल जायेगा। श्रेष्ठी शालिभद्र और आचार्य क्या कहेंगे मुझे? उन्हें हमारे गुप्त प्रेम का भी पता चल जायेगा।.
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इन्हीं विचारों में खोये कपिल को समय का भान नहीं रहा। मध्य रात में ही वह घर से निकल गया। और धन श्रेष्ठी के भवन की तरफ चल दिया। छोटी-छोटी गलियों को पार कर वह राजमार्ग पर आया और डरता, सहमता चल रहा था कि पीछे से एक कड़कती आवाज आई
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कपिल बैठा-बैठा आशा के महल बनाने लगा। दो मासा सोना लाकर कपिला को दूँगा तो वह प्रसन्न हो जायेगी। फिर तो मेरी हो ही जायेगी, वह मुझे ही चाहेगी।
ओह, पहरेदार, मुझे छिप जाना चाहिये।
कहाँ चला गया? अभी तो यहीं था ।,
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