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युवायोगी जम्बूकुमार
प्रभव ! यही तो तुम्हारी और मेरी समझ का अन्तर है। तुम राजपुत्र होकर भी चोरी जैसा नीच कर्म कर रहे हो, केवल धन के लिए.....
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और मैं, कल प्रातः इस धन का त्याग करके मुनि दीक्षा लेने वाला हूँ।
जम्बूकुमार की बातों से प्रभव का मन बदल गया। वह कुछ देर तक सोचता रहा। फिर निर्णायक स्वर में बोला
श्रेष्ठीपुत्र, ठीक कह रहे हैं आप। इस धन के मोह ने ही तो मुझे राजकुमार से चोर बना दिया। शान से जीने वाला आज वनों में छुप-छुप कर पशुओं जैसा जीवन बिता रहा हूँ। मैं भी अब इस धन को मिट्टी समझ कर त्याग देता हूँ । आपके साथ मैं भी मुनि बनूँगा ।
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धन्य है प्रभव तुम्हे ! सुबह के भटके शाम को लौट आये। अब अपने साथियों को भी समझाओ।
आप इन्हें मुक्त तो कीजिये। मैं इन सबसे बात करता हूँ।
क्या, सच...?
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