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सती मदनरेखा रंभा गिड़गिड़ाती मणिरथ के पास आई।। दो दिन बाद मौका देखकर रात के समय मणिरथ स्वयं ही महाराज ! जिसे बकरी समझा, वह तो
| अकेले युगबाहू के महलों की तरफ चल दिया। वहाँ पहुँचकर खूखार शेरनी निकली.. आज तो मरती-मरती
| उसने मदरेखा के कक्ष का दरवाजा खटखटाया।। बच गई, अब मैं कभी उसके पास नहीं इतनी रात 00 जाऊँगी.. मुझे नहीं चाहिए आपका इनाम..
गये कौन हो सकता है।
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यह कहकर रंभा चली गई।
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मदनरेखा ने उच्च स्वर में पूछा-
कौन है?
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मैं हूँ ! मणिरथ ! दरवाजा खोलो ! देखो तुम्हारे लिए | क्या-क्या लाया हूँ।
मदनरेखा ने मणिरथ के बुरे इरादों को भांप लिया। उसने भीतर से ही आवाज दी
मेठजी ! आप भूल गये यह तो
आपके छोटे भाई का कक्ष है। आपका कक्ष उधर है! उधर जाइए।
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