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क्षमादान
इतना कहकर चण्डप्रद्योत ने मुँह फेर लिया औरचण्डप्रद्योत की बात सुनकर महाराज उदायन बोला
गहरे सोच में डूब गये। मुझे नहीं करना ऐसा झूठा क्षमापना। यदि सच्चे मन से
अपराधी के अपराधों को क्षमा करना मेरा आप सब जीवों को अपने
धर्म है और आज की स्थिति में मेरा सबसे समान मानते हो तो मुझे क्यों
बड़ा अपराधी चण्डप्रद्योत है। राजधर्म ने बन्दी बना रखा है?
इसे अपराधी मानकर बन्दी बनाया है। तो क्या मेरा आत्मधर्म इसे अपना मित्र
मानकर मुक्त नहीं कर सकता?
राजा उदायन अर्तमन्थन करते हैं
उदायन को दुविधा में देखकर चण्डप्रद्योत ने उनसे । कहा-राजन! आज आपकी धर्म
परीक्षा की घड़ी है। आपका धर्म, सामायिक, पौषध, पर्युषण पर्व केवल दिखावा है, छलावा
है या दिल से क्षमापना करते हैं? इस बात का निर्णय
आज हो जायेगा।
यह सारा युद्ध तो अहंकार का है। स्वर्णगुलिका
अपने मन से चण्डप्रद्योत के साथ चली गई। उसके विश्वासघात को मैं अपने मान-अपमान के साथ क्यों जोड़ता हूँ। मेरा आत्म-सम्मान स्वर्णगुलिका के साथ नहीं, अपने धर्म के साथ जुड़ा है। मेरा धर्म है-क्षमा! वैर-विरोध का उपशमन मुझे अपने धर्म की रक्षा करनी है, अहंकार की नहीं! चण्डप्रद्योत को
खमाये बिना मेरा क्षमापना अधूरा ही रहेगा।
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