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________________ ५६९ नष्टायामपि राघव III. 66.13b नष्टोजसं रणे कृत्वा V. 58.12ya नष्टं दृष्ट्वा नाभ्यनन्दन् II. 48.5a ,, भवति चेतनम् II. I2.13b नष्टां च जनकात्मजाम् IV. 30.3b , देवश्रुतीमिव IV. 6.5d नष्टाः स्थेत्यब्रवीदली IV. 48.18d न सकामां करिष्यामि II. 79.12a. ,, सक्षमः कोपयितुम् IV. 32.20a ,,, तस्य स्वरो व्यक्तम् III. 45.16c ,, सत्यं दानमानौ वा II. 30.35a ,,, प्रतिभाति मे II. 88.Iob ,, सनाथा वसुंधरा IV. 17.42b ,, स नाशयितुं न्याय्य V. 51.25c न सन्ति महिषा यत्र IV. 48.ga ,, स पापेन कर्मणा VI. 83.23d ,, समं भुवि विद्यते IV. 44.6b , , युद्धमित्याहुः VI. I02.5c , समः स्याद्धनूमत: VI. 1.6b ,, समो राघवो रणे VI.:.17b ,, सम्यगभिवर्धते VI. I0.15d ,, सर्वकामावसुधां न मैथिलीम् II. 34.58b ,, सर्वत्र क्षमा वीर VII. 58.50 ,, सर्वलोकेश्वरभावमव्ययम् II. 101.26d ,, सर्वे भ्रातरस्तात IV. 18.15a , स विद्येत ओमने III. 45.12d ,,,, वेद नयानयो VI. 63.5d ,, ,, व्यसनमाप्नुयात् VI. 63.12d ,,,, शक्यस्तुलयितुम् V. 37.17a ,, ,, शोच्यः कदाचन II. 44.4d ,, ,, पिता तात II. I05.32c ., ,, संकुचितः पन्थाः IV. 30.8ra ., , , , 34 Ila ,,, संतप्यते पश्चात् VI. 12.30c ,, सहन्ते परस्तवम् II. 26.25b न सहिष्यन्ति ते नादम् VI. 57.9c ,, सहे हीदृशं वाक्यम् III. 45.30c ,, सा जनकनन्दिनी V. 12.22d ,,, धर्षयितुं शक्या III. 37.20a ,, साम रक्षःसु गुणाय कल्पते V. 41.3a ,, साम्ना शक्यते कीर्तिः VI. 2 I.I6c ,, ,, ,, यशः VI. 21.16d ,, सा शक्ष्यति जीवितुम् II. 29.7b ,, सीतां ददृशुर्वारा IV. 48.4c ,, सीता दृश्यते साध्वी V. 12.6c ,, ,, परिरक्षिता V. 55.9d ,, सीतां भक्षयिष्यथ V. 27.5b ,, सीतामसितेक्षणाम् V. 58.86d ,, सीतायाः परां भार्याम् VII. 99.7a ,, सीतासदृशी तथा VI. 12.13d ,, सुखं न च मेदिनीम् II. 34.47b ,, सुखं प्राप्नुयादन्यः V. 51.33c ,, ,, विन्दते जगत् VII. 35.62b ,, सुखाल्लभते सुखम् III. 9.31d ,, सुखान्मन्यते परम् II. 74.25d ,, सुप्रतिकर तत्तु II. III.C ,, सुमित्रां परंतप II. 58.32b ,, सुरा न मरगणाः V. 38.42b ,, सुहृद्भिर्न चामात्यैः II. 59.19a ,, सुहृद्भिविनाभवः II. 94.5b ,, सूक्ष्ममपि लक्षणम् V. 27.40d ,, , संमोहम् VI. I07.4ta ,, सूर्यस्तपते लोकम् II. 4I.I7c ,, सेयं सःशी तव III. I7.26b ,, सेव्य इति मे मतिः VI. 83.26d ,, सैन्येनोपयातोऽस्मि II. 91.6c ,, सोऽस्ति कश्चि िषु संग्रहेषु V. 48.5c ,,, यः स्यान्न गर्ततमः सुखी II. 95.18d ,, सौभाग्ये न दाक्षिण्ये 1. 22.16a ,, संतप्यति कारस्थः IV. 20.15c Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002795
Book TitleValmiki Ramayana Pada Suchi Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGovindlal H Bhatt
PublisherOriental Research Institute Vadodra
Publication Year1966
Total Pages1190
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size26 MB
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