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धर्मशास्त्र का इतिहास ... आज के बहुत-से युवा लोगों में कदाचित् ही ऐसी बात पायी जाती हो जिसके लिए वे उत्सर्ग के साथ प्रयत्न करें, अत: उनके समक्ष कोई भी आदर्श नहीं है। हमें सामान्य जनों पुरुषों एवं नारियों में धार्मिक भावना का संरक्षण करना ही है और विज्ञान तथा सामान्य ज्ञान के मार्ग में रोड़ों को क्रमश: दूर करना है। हमारे प्राचीन धर्म के सिद्धान्त दोषी नहीं हैं, प्रत्युत हमें आधुनिक हिन्दू समाज को फिर से गठित एवं व्यवस्थित करना है, विशेषत: जबकि आज हमारे देश में लोकनीतिक जनतन्त्र स्थापित है। महान आर्थिक विषमता के बीच समानता रखने के लिए बहत वर्षों तक हमारे नेताओं को महान प्रयास करने हैं, शक्तिशाली दलों एवं सामाजिक सम्प्रदायों से हमें स्वतन्त्रता की रक्षा करनी है, दुर्जनों एवं खलों के नायकों से लोकनीति को बचाना है तथा धनिक लोगों के प्रभुत्व से भी अपने जनतन्त्र की रक्षा करनी है।
हमें अपने देश की विलक्षण एवं दारुण कठिनाइयों से विमुख नहीं होना है। हमें आँखें खोलकर इस विस्तृत एवं अति विशाल भारत की जानकारी प्राप्त करनी है । आधुनिक भारत में आठ प्रमुख धर्म हैं (हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख, मुस्लिम, पारसी, ईसाई एवं यहूदियों का धर्म); कुछ ऐसी जातियाँ हैं, जिनके अपने विशिष्ट आदिम आचार हैं; विभिन्न राज्य हैं जो १४ विभिन्न भाषाओं पर आधृत हैं, ६ संघीय प्रदेश हैं
और लगभग २०० परिगणित बोलियाँ हैं। इनसे पूर्ण प्रादेशिक स्वतन्त्र सत्ता और सांस्कृतिक पृथकत्व की संभावना हो सकती है। भारतवासियों में महान् विषमताएँ भी हैं, एक ओर आदिम जातियाँ एवं ऐसे लोग हैं जो अस्पृश्य कहे जाते रहे हैं और दूसरी ओर अति पढ़े-लिखे लोग हैं और इन दोनों के बीच में अशिक्षित लोगों की वह विशाल संख्या है जो पूरे देश की जन-संख्या की लगभग ७७ प्रतिशत है। बाह्य लोगों द्वारा शतियों तक विजित होने के उपरान्त हमारे देश ने स्वतन्त्रता पायी है। स्पष्ट है, यह सब हमें बड़ी गंभीरता से सोचने के लिए एवं कार्यरत रहने के लिए उद्वेलित करता है। हमें हिन्दू धर्म के आधारभूत सिद्धान्त नहीं छोड़ने हैं, किन्तु नयी एवं जटिल दशाओं से संघर्ष करने के लिए हमें उनका नवीनीकरण करना होगा और एक परिवर्तित सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना होगा । प्रत्येक व्यक्ति यही कहता है कि हममें राष्ट्रीय एकतानुभव के लिए भावात्मक एकता की परम आवश्यकता है और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कुछ लोगों ने निर्देश किया है, जाति-प्रथा को उखाड़ फेंकना। यदि जाति-प्रथा कोई विभाव्यमान अथवा स्पर्शवेद्य (स्पृश्य या प्रकट) वस्तु हो तो उसे सुकरता एवं शीघ्रता से तोड़ा जा सकता है। किन्तु बात वास्तव में वैसा नहीं है। कानून द्वारा हम इसे नष्ट नहीं कर सकते । लगातार बहुत दिनों के प्रयासों के फलस्वरूप हृदय परिवर्तन से ही यह सम्भव हो सकता है, केवल लम्बी-लम्बी एवं चिकनीचुपड़ी बातों से कुछ नहीं होगा ।
जाति-प्रथा, संयुक्त परिवार पद्धति एवं उत्तराधिकार एवं रिक्थाधिकार के नियम केवल हिन्दुओं की अपनी विशेषताएँ हैं और वे सामाजिक विषय हैं न कि धार्मिक। हमारे संविधान ने इन सभी को स्पर्श कर लिया है। ये तीनों विषय वास्तव में सामाजिक हैं, यदि ये धार्मिक होते तो संविधान इन्हें छू नहीं सकता था। जैसा कि हमने देख लिया है, संविधान ने अस्पृश्यता का नाश कर दिया, हिन्दू-विवाह-कानू
वरोधों को दूर कर दिया है, अब विभिन्न जातियों के लोग एक-दूसरे से विवाह कर सकते हैं और अब एक हिन्दू किसी भी हिन्दू (बौद्धों, जैनों एवं सिखों सहित) से विवाह-सम्बन्ध स्थापित कर सकता है, केवल सपिण्डता एवं निषिद्ध पीढ़ियों पर ध्यान देना होता है। जैसा कि हमने ऊपर देख लिया है, हिन्दू
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