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________________ ४१८ धर्मशास्त्र का इतिहास सतों ने भारत के क्षेत्रफल का ११३ भाग घेर रखा था, इनकी जनसंख्या भारत की जनसंख्या की १।४ थी, देखिए वी० पी० मेनन कृत 'स्टोरी आव दि इण्टीग्रेशन आव स्टेट्स'); (४) भारत का १५ प्रदेशों एवं ६ संघीय राज्यों में विभाजन किया गया, यह विभाजन अधिकांशत: भाषा एवं प्रशासन की सुविधा को दृष्टि में रख कर किया गया; (५) वयस्क मताधिकार के आधार पर अब तक पाँच चुनाव हो चुके हैं, प्रत्येक व्यक्ति (पुरुष या नारी) को, जो २१ वर्ष का है, विधान द्वारा या किसी कानन द्वारा जो अयोग्य नहीं ठहराया गया है, लोक-सभा एवं प्रदेशों की विधान सभाओं के चनाव में मत देने का अधिकार प्राप्त है; (६) समाजवादी ढंग के समाज का निर्माण अपना उद्देश्य है (धारा ३८, ३६); (७) चार पंचवर्षीय योजनाएँ कार्यान्वित हो चुकी हैं और चौथी प्रकाशित हो रही है (परिशिष्ट सं०७, सूची ३, विषय २० के अन्तर्गत)। संविधान के विरोध में कुछ आलोचनाएँ की जा सकती हैं। पहली बात यह है कि यह बहुत बड़ा है, बहुविस्तृत है और बहुत-से सूत्रों एवं स्रोतों से प्राप्त व्यवस्थाओं का एक सम्मिश्रण है। इंग्लैण्ड, आयरलैण्ड तथा अन्य यूरोपीय देशों के संविधानों से बहुत-सी व्यवस्थाएं ले ली गयी हैं सन् १६३५ के भारतीय कानून की कुछ व्यवस्थाएँ भी ले ली गयी हैं। इनमें से कुछ बातों को छोड़ा जा सकता था और सामान्य व्यवहारों द्वारा उन्हें कार्यान्वित किया जा सकता था। विस्तृत होने पर भी इसमें बहुत-सी बातें छूट गयी हैं। राजनीतिक दलों, व्यावसायिक निगमों, धर्मों एवं राज्य के सम्बन्ध के विषय में कोई स्पष्ट बात नहीं कही गयी है। हमारी परम्पराओं से हमारे संविधान का कोई सम्बन्ध नहीं है । धर्मसत्र एवं स्मृतियाँ वर्णों एवं आश्रमों के धर्मों (कर्तव्यों) से आरम्भित होती है। स्वयं प्रथम प्रधानमंत्री स्व. पं. जवाहरलाल नेहरू ने 'आजाद मेमोरिएल लेक्चर्स', 'इण्डिया टु-डे एवं टुमारो' (१६५६, ५० ४५) में कहा है-'हम सभी आज अधिकारों एवं स्वत्वों के विषय में बात करते हैं और उनकी मांग करते हैं, किन्तु प्राचीन धर्म की शिक्षा कर्त्तव्यों एवं उपकारों के विषय में थी। अधिकार तो किये गये कर्तव्यों का अनसरण करते हैं।' अभाग्यवश हमारे संविधान में इस विचार का अभाव है। भारत के जीवन में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात है जनता द्वारा शक्ति की प्राप्ति, जो न केवल राजनीतिक है, प्रत्युत वह सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक एवं नैतिक भी है। संविधान ने जन-साधारण में एक भावना का उद्रेक कर दिया है कि उन्हें मानो केवल अधिकार प्राप्त है और कर्तव्यों से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है और वे अपने घरों एवं चाय-काफी की दुकानों में बैठकर जो भावनाएँ बनाते हैं, अर्थात अपने अधिकारों का जो चित्र खींचते हैं, उन्हें कानन का रूप मिलना चाहिए, उन्हें कानून की शक्ति प्राप्त होनी चाहिए और होना चाहिए उन विषयों में पूर्ण न्याय । भारतीय संविधान में देश के प्रति या लोगों के प्रति पालनीय कलेव्यों के विषय में कोई अध्याय नहीं है। १६वीं धारा ने सात प्रकार की स्वतन्त्रताओं का उल्लेख किया है, जिनमें एक निर्माण । उपधारा (४) ने राज्यों को लोक व्यवस्था या नैतिकता के हित में लोगों पर नियन्त्रण स्थापित करने के लिए कानून बनाने की छूट दी है। संविधान बनाने वाले यह वात भूल गये कि कभी ऐसा ३. प्रथम महायुद्ध तक ग्रेट ब्रिटेन में नारियों को मताधिकार नहीं प्राप्त था और आज तक भी स्विटज़रलैण्ड में नारियों को यह अधिकार नहीं प्राप्त हो सका है (देखिए ज्यार्ज सोलोवेय-चिक कृत 'स्विटजर लण्ड इन पस्पेक्टिव', पृ० ३१, सन् १६५४ में प्रकाशित)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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