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________________ ४१० धर्मशास्त्र का इतिहास में कुछ लिखा न गया हो । यह विशाल संस्कृत साहित्य अपनी बहुत-सी व्यापक एवं मार्मिक प्रवृत्तियों के साथ तिब्बत, चीन, जावा आदि देशों में चला गया था। भारत ने अपने साहित्य से मुसलमानों एवं यूरोप वालों के प्रबुद्ध संसार को प्रभावित किया। भारत विश्व का गणित -गुरु है। दशमलव-पद्धति, जिस पर आधुनिक गणित आधुत है, भारत की देन है। भारत की आख्यायिकाओं (प्रबन्ध-कल्पनाओं) एवं वेद मसलमानों एवं यूरोप वालों को प्रभावित किया । देखिए इस विषय में विण्टरनित्स कृत 'सम प्राब्लेम्स आव इण्डियन लिटरेचर (रीडरशिप लेक्चर्स, कलकत्ता विश्वविद्यालय, पृ० ५६-८१), जहाँ उन्होंने पदिचम के 'ऊपर पडे संस्कृत साहित्य के प्रभाव का मार्मिक उल्लेख किया है। संस्कृत साहित्य का जो अध्ययन यरोपवासियों द्वारा १८ वीं शती के अन्त में तथा १६वीं शती में हुआ उससे कई विज्ञानों के अध्ययन-अध्यापन की नींव पड़ी, यथा भाषा-शास्त्र, तुलनात्मक धर्म-विज्ञान, विचार-विज्ञान एवं प्राचीन आख्यायिका-विज्ञान आदि। वेबर, मैक्समूलर, विण्टरनित्ज़, कीथ, एम० कृष्णमाचारियर ऐसे विद्वानों द्वारा लिखित संस्कृत साहित्य के कतिपय इतिहास हैं, जो विशाल संस्कृत साहित्य पर प्रभूत प्रकाश डालते हैं। भारत ने अपने एवं सारे संसार के लिए एक ऐसा विशाल साहित्य रख छोड़ा है, जिसके सबसे महत्त्वपूर्ण एवं उच्च भाग का प्रमुख आशय यह है कि व्यक्ति को इन्द्रियों को संयमित करने तथा नैतिकता एवं आध्यात्मिकता की उच्च से उच्च भूमिका तक पहुँचने का प्रयास कभी नहीं छोड़ना चाहिए। संस्कृत साहित्य की प्रशंसा में एच० एच० गोवेन ने अपने ग्रन्थ 'ए हिस्ट्री आव इण्डियन लिटरेचर' (१६३१, पृ० ८) में जो कुछ लिखा है उस की . उक्ति पठनीय है :-'भारतीय साहित्य का एक यथार्थ सत्य मूल्य (लक्ष्य) है, जिसे काल की दूरी नष्ट नहीं कर सकती। पुनीतता, विविधता एवं अजस्रता में कोई भी अन्य साहित्य इसकी तुलना में खड़ा नहीं हो सकता, यह निश्चित है कि कोई भी इससे बढ़ कर नहीं है। पवित्रता में कोई अन्य (धार्मिक) शास्त्र, यहाँ तक कि बाइबिल भी, वेद से उसकी अजस्रता (लगातार चलते जाने) या सामान्य स्वीकृति में, सकता।' उन्होंने भारतीय साहित्य की विविधता एवं उसके महत्त्वपूर्ण अजस्र प्रवाह की भी विवेचना की है। परिनिष्ठित संस्कृत वाणी सर्वप्रथम कम-से-कम ई० पू० ५०० में पुष्पित हुई । पाणिनि ने कम-से-कम अपने इन पूर्ववर्तियों के नाम लिये हैं और उनके सूत्र ४।३।८७ एवं ८८ स्पष्ट रूप से व्यञ्जित करते हैं कि पाणिनि काल के पूर्व पर्याप्त मात्रा में अवैदिक साहित्य समृद्ध हो गया था। (१३) योग-इसके विषय में एक लम्बा अध्याय लिखा जा चुका है । देखिए इस खण्ड का अध्याय ३२। अखिल विश्व में योग के समान कदाचित् ही कोई अन्य मानसिक एवं नैतिक अनुशासन इतने सन्दर ढंग से आलोचित और बहु विस्तृत पद्धति वाला रहा हो। मसिया इलियाड ने अपने ग्रन्थ 'योग, इम्मॉटैलिटी एंड फ्रीडम' (विलियम आर० ट्रैस्क द्वारा अनूदित, १६५८, पृ० ३५६) में लिखा है-'योग भारतीय मन की विशिष्ट मात्रा का द्योतक है' यह आध्यात्मिक परिकल्पनाओं एवं रूढिबद्ध क्रिया-संस्कार विधि की प्रतिक्रिया है। पाश्चात्य मन, जो आर्थिक समृद्धि के आधिक्य का अनुभव कर चुका है और आजकल के संकटों एवं मानसिक संक्षोभों से आक्रान्त है, योग एवं वेदान्त ऐसे दार्शनिक सिद्धान्त की ओर अधिक-से अधिक झक रहा है। आजकल कल लोगों पर उन्माद-सा छा गया है और वे योग सम्बन्धी विविध ग्रन्थों को पढ़ा-पढ़ा कर कछ विलणक्षता की प्राप्ति के पीछे पड़ गये हैं । बहुत-सी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं और होती जा रही है। इनमें से कुछ ऐसी पुस्तकें हैं जो सच्चे व्यक्तियों द्वारा लिखित हैं, किन्तु उनमें व्यावहारिक अनुभूति, योग-सम्बन्धी व्यक्तिगत अनुभव या रहस्यवादी अनुभूति का बड़ा भारी अभाव पाया जाता है । कछ ऐसी पुस्तकें हैं जो ऐसे लोगों द्वारा लिाखत हैं जो योग के पीछे पागल बने लोगों की भावना से लाभ उठाते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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