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धर्मशास्त्र का इतिहास
इच्छाओं तथा ध्येयों के बन्धन से स्वतन्त्रता ) । मोक्ष को परमपुरुषार्थ कहा गया है और अन्य तीनों को त्रिवर्ग की संज्ञा मिली है। धर्म की धारणा बहुत ही महत्त्वपूर्ण है और इस पर अति प्राचीन काल से ही बल दिया गया है । यह उन सिद्धान्तों की ओर इंगित करती है जिन्हें व्यक्तियों को जीवन भर तथा सामाजिक सम्बन्धों में अपने आचरणों में उतारना पड़ता है। हमने पुरुषार्थों पर विस्तार के साथ इस महाग्रन्थ के मूल खण्ड २, पृ० २ - ११, खण्ड ३, पृ० ८-१० एवं २३६ - २४१ में पढ़ लिया है । अत: बहुत ही संक्षेप में कुछ बातें यहाँ कही जा सकेंगी। हमने इस खण्ड के आरम्भिक पृष्टों में देख लिया है कि ऋग्वेद में तीन शब्द आये हैं, यथा - ऋत ( जगत्सम्बन्धी व्यवस्था ), व्रत (वे नियम या अनुशासन जो देवों द्वारा व्यवस्थित हुए हैं ) तथा धर्म (धार्मिक कृत्य या यज्ञ या स्थिर सिद्धान्त ) । इन तीनों में ऋत शब्द लुप्त-सा हो गया ( पृष्ठभूमि में पड़ गया) और उसके स्थान पर सत्य शब्द आ गया और धर्म शब्द सबको स्पर्श करने वाली धारणा का द्योतक हो गया तथा व्रत केवल पवित्र संकल्पों एवं आचार-सम्बन्धी नियमों तक सीमित रह गया । समापवर्तन के समय गुरु शिष्य से कहता था - 'सत्यं वद, धर्मं चर' ( तै० उप० १।११) । बृ० उप० ( १ | ४ | १४ ) ने सत्य को धर्म के बराबर माना है । संसार की अन्यतम एवं भद्रतम प्रार्थनाओं में एक है--' असत्य से सत्य की ओर ले चलो, अन्धकार से प्रकाश की ओर तथा मृत्यु से अमरता की ओर' ( वृ० उप० १।३।२८ ) । इसी उपनिषद् (५।२।३) ने दम (आत्म-संयम), दान एवं दया नामक तीन प्रधान सुकृतों अथवा गुणों का माहात्म्य गाया है । छा० उप० (५१०) ने एक श्लोक उद्धृत किया है- 'जो सोना चुराता है, जो सुरापान करता है, जो गुरु के पलंग का अपमान करता है ( अर्थात् गुरु-पत्नी के साथ संभोग करता है) तथा जो ब्राह्मण की हत्या करता है - वे चारों नरक में गिरते हैं, और पाँचवाँ वह जो ऐसे लोगों के संसर्ग में रहता है।' यह द्रष्टव्य है कि इस प्राचीन श्लोक में बाइबिल में उल्लिखित दस अनुशासनों (टेन कमाण्डमेण्ट्स) में से कुछ पाये जाते हैं । उपनिषदों के काल में धर्म की धारणा सर्वोच्च स्थान ग्रहण करने लगी । वृ० उप० (१२४ | १४ ) में कथित है - 'धर्म से उच्च कोई अन्य नहीं है।' तै० आरण्यक (१०।६३ ) में आया है- 'धर्म सम्पूर्ण विश्व का आश्रय ( आधार या शरण) है ।' महाभारत एवं मनु ने बार-बार धर्म के उच्च मूल्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया है ।" महाभारत ने माना है कि चारों पुरुषार्थों से सम्बन्धित प्रत्येक वस्तु इसमें अवस्थित है, इसमें जो उनके विषय में नहीं है, वह अन्यत्र नहीं है । उद्योगपर्व में आया है - यह सभी जीवों को धारण करता है अतः धर्म कहलाता है।' वनपर्व एवं मनु दोनों में उद्घोषणा है- 'जब धर्म का हनन (उल्लंघन ) होता है तो वह हननकर्ता को मार डालता है, जब इसकी रक्षा होती है तो यह मनुष्य की रक्षा
६. धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा । लोके धर्मिष्ठं प्रजा उपसर्पन्ति । धर्मेण पापमपनुदति धर्मे सर्वं प्रतिष्ठितं तस्माद्धमं परमं वदन्ति । तै० आ० (१०।६३), महानारायणोपनिषद; धर्मे चार्थे: च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ । यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति ना तत्क्वचित् । । आदि पर्व (६२।५३ स्वर्गारोहणपर्व ५।५० ); और देखि ए आदि पर्व (६२।२३); धारणाद्धर्म इत्याहुधर्मो धारयते प्रजाः । उद्योग० (८६।६७, १३७६ ) ; धर्म एवहतो धर्मो हन्ति रक्षति रक्षितः । तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् । मनु ( ८।१५) । वनपर्व ( ३१३।१२८ ) भी वही है, केवल तीसरा पादयों है : 'तस्माद्धर्म न त्यजासि; ऊर्ध्व बाहुविशैम्येष नचकरिच्छुणोति माम् । धर्मादर्थश्चकामश्चस किमर्थं न सेव्यते । । न जातु कामान्न भयान्न लोभाद्धर्म जह्याज्जीवितस्यापि हेतोः । नित्यो धर्मः सुखदुःखत्वनित्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः । । स्वर्गारोहणपर्व (५।६२-६३) ।
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