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कर्म एवं पुनर्जन्म का सिद्धान्त
३८५ एक अन्य ग्रन्थ है अच्युतराय मोडक लिखित (१८१६ ई०) 'प्रारब्धध्वान्त संहति' (अर्थात् प्रारब्ध के विषय में अन्धकार या अज्ञान का नाश) । डा० एच० जी० नरहरि (न्यू इण्डियन ऐण्टीक्वेरी, जिल्द ५, पृ० ११५-११८) ने इस ग्रन्थ की पाण्डुलिपि, तिथि एवं विषयानुक्रमणिका उपस्थित की है । अच्युतराय के अनुसार ग्रन्थ का अर्थ है 'प्रारब्ध-वाद-ध्वान्तसंहृति' अर्थात् 'प्रारब्ध सिद्धान्त के द्वारा उत्पन्न अन्धकार का नाश ।' उन्होंने इस भावना की आलोचना की है कि गर्भाधान से लेकर मृत्युपर्यन्त तक के सभी मानवीय कर्म केवल अतीत जीवन के कर्मों द्वारा प्रशासित होते हैं । उनका कथन है कि सभी मानवीय क्रियाओं के मूल में प्रारब्ध, संस्कार (उपचेतन या अव्यक्त वृत्तियाँ) एवं प्रयत्न (मानवीय प्रयत्न) पाये जाते हैं। उनका कथन है कि देहपात के उपरान्त परमेश्वर द्वारा प्रेरित सञ्चित पुण्य एवं पाप फल देना आरम्भ कर देते हैं और उनमें जो पुण्यं (अच्छा कर्म ) या पाप (बुरा कर्म) या दोनों जो अत्यन्त प्रबल होता है यथोचित शरीर का आरम्भ कर देता है। जब मिथ (अच्छे एवं बुरे कर्म मिलकर) कर्म अत्यन्त प्रबल होते हैं तो व्यक्ति ब्राह्मण जाति में जन्म लेता है. जब पाप कर्म अत्यन्त प्रबल होता है तो तिर्यक योनि में तथा जब पुण्य कर्म अत्यन्त प्रबल होता है तो देवत्व प्राप्त करता है। आयु सौ वर्ष की हो सकती है। भोग है अनुकूल एवं प्रतिकूल अनुभूति । सुख के तीन प्रकार हैं--प्रातिभासिक, व्यावहारिक तथा प्रातिभासिक के कारण व्यावहारिक। सुम्य पुनः रम्य या प्रिय हो सकता है। रम्य एवं प्रिय एक-दूसरे के पर्याय नहीं हैं, क्योंकि सोना सन्यासी को रम्य (मुन्दर) लग सकता है, किन्तु यह उसके लिए प्रिय (या प्यारा) नहीं है। पुनः प्रिय के तीन प्रकार और सुख के तीन प्रकार बताये गये हैं, जिन्हें स्थानाभाव से यहाँ नहीं दिया जा रहा है। अब ता के सुख लौकिककार्य (सामान्य) हैं, किन्तु अन्य सुख भी हैं, यथा-वैदिक, प्रतीकोपासना, आहार्य (मान लिया गया) एवं वासनात्मक। वासनात्मक सुख के तीन प्रकार हैं-सात्त्विक, राजस एवं तामस । इसी प्रकार दुःख के भी प्रकार बताये गये हैं, जिनका वर्णन यहां नहीं किया जा रहा है । अन्य बातों का उल्लेख भी नहीं किया जा रहा है।
बहुत-से विद्वानों ने कर्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त के विरोध में बातें कहीं हैं । अब हम बहुत ही संक्षेप में उन विरोधों की जाँच करेंगे। प्रथम विरोध है प्रिगिल-पटिसन का (आइडिया आव इम्मॉर्टलिटी, आक्सफोर्ड, १६२२), पूर्व जीवन की कोई स्मृति नहीं होती, बिना स्मरण के अमरता व्यर्थ है । ऐसा ही विरोध मिस लिली डूगल (देखिए 'इम्मॉर्टलिटी'), कैनन स्ट्रीटर आदि ने भी उपस्थित किया है। इसका उत्तर कई प्रकार से दिया जा सकता है। क्या कोई व्यक्ति अपने जीवन के प्रथम दो वर्षों की बातें स्मरण कर लेता है ? यह भी विदित है कि अति वृद्धावस्था में लोग अपने पौत्रों के नाम तक ठीक से स्मरण नहीं कर पाते, अपने गत जीवन में दस वर्ष पूर्व व्यक्ति ने क्या-क्या किया, वास्तव में, ये सारी बातें स्मरण में नहीं आ पातीं। सचमुच, यह कारुणिक बात है कि हमें अतीत जीवनों की सुधि नहीं हो पाती । यदि अतीत जीवनों की सारी बातें स्मरण होने लगें तो हमारा मन व्यामोह में पड़ जाय । कर्म गुरुत्वाकर्षण के नियम के समान एक सार्वभौम कानून है, जो सम्पूर्ण विश्व में परिव्याप्त है। गुरुत्वाकर्षण को लोग सहस्रों वर्षों से नहीं जानते थे। किन्तु वह नियम पहले से ही विद्यमान था। बहुत से लोग अपने अतीत जीवनों को स. की बात कहते रहे हैं। लाला देशबन्धु गुप्त, पं० नेकीराम शर्मा एवं ताराचन्द माथुर ने शान्तिदेवी की कहानी पर प्रकाश डाला है। शान्तिदेवी को अपना पूर्व जीवन स्मरण हो आया था। 'थियोसोफिस्ट मंथली' (जनवरी १६२५) में बहुत-सी गाथाएँ दी हुई हैं, जिनमें अतीत जीवनों के स्मरण हो आने की बात पायी जाती है। श्रीमती एनी बेसेण्ट एवं श्री लेडबीटर ने 'दि लावज आव अलसीओन (अद्यार,१६२४) ई० पू० ७०,०००
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