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कर्म एवं पुनर्जन्म का सिद्धान्त
३८३ (८।३१६) में आया है कि यदि चोर राजा के पास आता है, पाप-निवेदन करता है और राजा से कहता है कि वह उसे भारी डण्डे या हथियार से मारे और राजा उसे मारता है या छोड़ देता है तो चोर पाप से मुक्त हो जाता है, किन्तु यदि राजा उसे दण्डित नहीं करता तो वह चोर के समान अपराधी सिद्ध होता है। और देखिए वसिष्ठ (१६१४६ एवं २०४१) । मनु (३।१००) में आया है कि यदि उस व्यक्ति के घर में जो पवित्र एवं सादा जीवन व्यतीत करता है, खेत में पड़े अन्न को बीन कर अपनी जीविका चलाता है और पांच अग्नियों में होम करता है, कोई अतिथि बिना सम्मान पाये निवास करता है तो उसका सारा पूण्य अतिथि का हो जाता है। और देखिए इस विषय में शान्ति० विष्णुधर्मसूत्र तथा कतिपय पुराण ।" यह सब सम्भवतः अर्थवाद है, अर्थात् केवल गृहस्थों को अतिथि सत्कार के लिए प्रोत्साहन देना मात्र है । साक्ष्य देने वाले को न्यायाधीश ने इस प्रकार समझाया है-'तुमने जो कुछ सुकृत सैकड़ों जीवनों में किये होंगे वे सभी उस पक्ष को मिल जायेंगे जो तुम्हारे असत्य साक्ष्य से हार जायेंगे, (याज्ञ० २७५)। मिताक्षरा एवं अपरार्क ने कहा है कि यह सब केवल डराने के लिए है। (फिर भी असत्य भाषण का पाप तो होगा ही। और देखिए मनु (८1६०), एवं १२।८१) ।
भगवद्गीता ने, इस बात के रहते हुए भी कि वास्तविकता के ज्ञान (तत्त्वज्ञान) से सभी कर्मों के
नष्ट हो जाते हैं. अन्त में ईश्वर-भक्ति पर बल दिया है, सब कछ भगवान के चरणों में अर्पित कर देने को कहा है-'सभी विभिन्न मार्गों को छोड़कर मेरी ही शरण में आओ; चिन्ता न करो, मैं तुम्हें सभी पापों के प्रतिफलों से मुक्त कर दूंगा । ३२
पति एवं पत्नी के विषय में धर्मशास्त्र-ग्रन्थों में बहुत कुछ है। किन्तु वहाँ जो कुछ कहा गया है उसे ज्यों-का-त्यों नहीं ग्रहण करना चाहिए । मनु (५।१।६४-१६६) ने कहा है-'पति से झूठा व्यवहार करके (किसी अन्य के साथ व्यभिचार करके) पत्नी इस जीवन में निन्दित तो होती ही है, वह (मृत्यु के उपरान्त) लोमडी हो जाती है और (कोढ़ ऐसे) भयंकर रोगों से ग्रसित होती है । वह स्त्री, जो विचार, वाणी एवं कर्म पर संयम रखती है, जो अपने पति के प्रति असत्य नहीं होती, वह अपने पति के साथ (स्वर्ग में) रहती है. और पतिव्रता नारी कहलाती है। मन, वचन एवं कर्म में संयमित नारी अपने आचरण द्वारा इस जीवन में सर्वोच्च यश कमाती है और परलोक में पति के साथ, निवास करती है।' देखिए इस महाग्रन्थ का खण्ड २. प०५६७-५६८, जहाँ पतिव्रता के विषय में उल्लेख है । एक श्लोक 'इस प्रकार है-'जिस प्रकार मदारी सर्प को बिल से बलपूर्वक बाहर निकाल लेता है, उसी प्रकार पतिव्रता नारी यमदूत से अपने पति का जीवन खींच लेती है और पति के साथ परलोक जाती है।' यह भी एक अर्थवाद है, किन्तु सम्भवतः यह उन कालों की प्रचलित भावनाओं की ओर संकेत है ।
३१. अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात्प्रतिनिवर्तते । स तस्मै दुष्कृतं दत्त्वा पुण्यमादाय गच्छति ।। शान्तिपर्व (१८४।१२, चित्रशाला संस्करण); विष्णुधर्मसूत्र (६७।३३), विष्णुपुराण (३।६।१५ एवं ३।२।६८); वराहपुराण (१७०।४६)।
___३२. सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः । भगवद्गीता (१८१६३) । यहाँ धर्म का अर्थ मार्ग है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने लक्ष्य तक जाता है। बहुत-से मार्गों को ओर शान्तिपर्व (३४२।१०-१६-३५४।१०-१६० चित्रशाला) में संकेत है, यथा--मोक्षधर्म, यज्ञधर्म, राजधर्म, अहिंसाधर्म । उस अध्याय में अन्तिम श्लोक यों है-'एवं बहुविधैर्लोकधर्मद्वारैरनावृतः। ममापि मतिराविग्नामेघलेखेव वायुना।।'
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