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________________ ३६२ धर्मशास्त्र का इतिहास जाति के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य के अनुसार कुछ अवधि तक नरक की यातनाएं सहकर क्रम से चाण्डाल पोल्कस या वैण बनता है ( का जन्म पाता है) ।' यही बात गौतमधर्मसूत्र (११।२६ - ३० ) में भी आयी है । कर्म का सिद्धान्त यह बताता है कि प्रत्येक अच्छा या बुरा कर्म विशिष्ट प्रकार का परिणाम उपस्थित करता है जिससे कोई बच नहीं सकता । इस भौतिक संसार में कार्य-कारण का एक सार्वभौम नियम है। कर्म का सिद्धान्त इस नियम को मानसिक एवं नैतिक धरातल पर भी ला देता है । कर्म का सिद्धान्त कोई यान्त्रिक कानून नहीं है, यह एक प्रकार से नैतिक एवं आध्यात्मिक आवश्यकता है । इसमें सन्देह नहीं कि यह सिद्धान्त वैज्ञानिक नहीं है, किन्तु इसे केवल काल्पनिक कह कर ही हम नहीं त्याग सकते। यदि कर्म एवं पुनर्जन्म का सिद्धान्त न होता तो हम इस लोक को अनियन्त्रित मानते और यह समझते कि स्रष्टा लोगों के कर्मों की चिन्ता नहीं करता है और मनमाने ढंग से लोगों को पुरस्कार आदि देता है । वास्तव में कर्म सिद्धान्त तीन बातों पर बल देता है- ( १ ) यह वर्तमान अस्तित्व को अतीत अस्तित्व अथवा अस्तित्वों में किये गये कर्मों का फल मानता है; एक प्रकार का प्रायश्चित्त मानता है, (२) बुरे कर्म का नाश सत्कर्म से नहीं हो सकता, दुष्कर्मों का भोग तो भोगना ही है, (३) दुष्कर्म के लिए जो दण्ड होता है वह व्यक्तिगत एवं स्वयं होने वाला होता है । यहाँ पर संयोग एवं भाग्य की बात ही नहीं उठती। कर्म सिद्धान्त से ही हम पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर पहुँचते हैं । एक व्यक्ति के कर्मों के फल अचानक या वर्तमान जीवन में नहीं भी घटित हो सकते। आदिपर्व एवं मन में आया है - 'दुष्कर्म अपना फल गौ (जो खा लेने के पश्चात् ही पर्याप्त दूध दे देती है) के समान तुरन्त ही नहीं उपस्थित कर देता, किन्तु धीरे-धीरे वह अपने कर्ता की जड़ को ही कुतर डालता है । अतीत अस्तित्वों में किये गये कर्म वर्तमान अस्तित्व के रूप को निर्धारित एवं निश्चित करते हैं और वर्तमान अस्तित्व के कर्म पूर्व जन्मों (अस्तित्वों) के शेष कर्मों के साथ भावी अस्तित्व का रूप निर्धारित करते हैं । यही संक्षेप में, पुनर्जन्म के सिद्धान्त का आधार है । इसमें जो परिवर्तन हुए हैं उनसे सम्बन्धित वचनों, उक्तियों एवं प्रचलित दृष्टिकोणों पर हम आगे विचार करेंगे । भौतिक शरीर की मृत्यु के उपरान्त क्या होता है, इस विषय में जितने अनुमान हैं उनमें ही पुनर्जन्म का भी सिद्धान्त है जो अन्य अनुमानों के समान ही तार्किक है । सम्पूर्ण नाश वाले सिद्धान्त के अनुमान से ( जो अनस्तित्ववादियों द्वारा घोषित है ) तो यह अधिक सन्तोषजनक है। इतना ही नहीं, स्वर्ग या नरक में कर्मों के प्रतिकार के रूप में अनन्त काल तक रहने वाले सिद्धान्त से भी यह सिद्धान्त अपेक्षाकृत अधिक सन्तोषजनक है। अधिकांश धर्मों के नेता एवं प्रवर्तक लोग ऐसा विश्वास करते हैं कि ईश्वर उनके साथ है और उन्होंने १६वीं शती तक अपने धर्मों के बाहर कोई भला (व्यक्ति या घटना) नहीं देखा है। उपनिषदों एवं गीता का हिन्दू धर्म ही एक ऐसा धर्म एवं दर्शन है जिसने सहस्रों वर्ष पहले ऐसा उद्घोष किया कि सत्कर्मों वाला व्यक्ति ही भगवान् के अत्यधिक सन्निकट है और दुष्कर्मों वाला व्यक्ति भगवान के अनुग्रह एवं संग को नहीं पा सकता । वेदान्तसूत्र ( ३|१) ने छा० उप० एवं बृ० उप० में पाये जाने वाले पञ्चाग्निविद्या-सम्बन्धी वचनों की जाँच की है। शंकर के भाष्य में पाये जाने वाले विशद विवेचन को यहाँ उपस्थित करना सम्भव नहीं है, अतः कुछ महत्त्वपूर्ण अन्तिम निष्कर्ष ही यहाँ उपस्थित किये जा रहे हैं - यह आत्मा (व्यक्ति का आत्मा) एक ११. नाधर्मश्चरितो लोके सद्यः ( ८० २ एवं मनु ( ४।१७२ ) । Jain Education International फलति गौरिव । शनैरावर्तमानस्तु कर्तुर्मूलानि कृन्तति । आदिपर्व For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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