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________________ eer का इतिहास कठोपनिषद् (५।६-७ ) में नचिकेता को यम ने ब्रह्मविद्या का रहस्य बताया है और यह भी बताया है कि मृत्यु के उपरान्त आत्मा का क्या हो जाता है— कुछ लोग दैहिक अस्तित्व के लिए माता के गर्भाशय में चले जाते हैं और अन्य लोग अपने कर्मों एवं विद्या के अनुसार वृक्षों की थून्हियों ( स्याणुओं) में परिवर्तित हो जाते हैं । ३.६० बृ० उप० (६।२।१५-१६) एवं छा० उप० (५/३ | १० आदि) में देवयान एवं पितृयाण मार्गों से जाने वाले लोगों का उल्लेख है । सर्वप्रथम हम बृ० उप० को उद्धृत करते हैं - 'ऐसे लोग जो (गृहस्थ भी ) इसे ( पञ्चाग्नि द्या) जानते हैं और वे लोग जो ( आश्रमवासी एवं संन्यासी) वन में श्रद्धा के साथ सत्य ( ब्रह्म या हिरण्यगर्भ ) की उपासना करते हैं अचि (प्रकाश) को जाते हैं, अर्चि से दिन ( अहन् ) को, दिन से पूर्ण होते हुए पक्ष ( शुक्ल पक्ष ) को, आपूर्वमाणपक्ष ( पूर्ण होते हुए पक्ष ) से छह मासों में जाते हैं, जिस अवधि में सूर्य उत्तर में गतिशील हो जाता है । उन छह मासों से देवलोक में जाते हैं, देवलोक से सूर्य को जाते हैं और सूर्य से विद्युत् को जाते हैं । जब वे विद्युत् के स्थल को पहुँच जाते हैं तो ( ब्रह्मा के ) मन से उत्पन्न पुरुष उनके पास आता है और उन्हें ब्रह्मा के लोकों को ले जाता है, इन लोकों में उच्च पद प्राप्त करके वे युगों तक रहते हैं और उनके लिए ( इस संसार में पुनः ) लौटना नहीं होता । किन्तु वे लोग जो यज्ञ, दान एवं तप द्वारा लोकों पर विजय प्राप्त करते हैं, धूम (मार्ग) को जाते हैं, घूम से रात्रि को रात्रि से कृष्णपक्ष को, कृष्णपक्ष से छह मासों को जाते हैं जिनमें सूर्य दक्षिणायन होता है, इन मासों से पितरों के लोक में जाते हैं, पितृलोक से चन्द्र लोक को जाते हैं और चन्द्र तक पहुँच जाने पर वे अन्न हो जाते हैं और तब देवगण उन्हें उसी प्रकार खाते हैं जिस प्रकार यज्ञ करने वाले राजा सोम को खाते हैं (यह यज्ञ के अनु: सार बढ़ता या घटता है ) । किन्तु जब यह ( पृथिवी पर किये कर्मों का फल ) समाप्त हो जाता है वे आकाश को लौट आते हैं, आकाश से वायु, वायु से वर्षा और वर्षा से पृथिवी पर चले आते हैं; पृथिवी पर पहुचने पर वे अन्न (भोजन) हो जाते हैं । तब वे पुनः अग्नि में, जो मनुष्य कहलाती है, डाले जाते । इससे ( अर्थात् मनुष्य से ) वे अग्नि में जो नारी कहलाती है, जन्म लेते हैं। ये लोग लोकों की प्राप्ति के लिए (यज्ञ आदि द्वारा) उद्योग करते हुए इस लोक में बार-बार आते हैं। वे लोग, जो इन दोनों मार्गों से अपरिचित हैं, कीटों, पतंगों, पक्षियों एवं मविखयों के रूप में जन्म लेते हैं ।' गये छा० उप० (५।१०।१-२) में बृह० उप० (६।२।१५ ) के ही शब्द अधिकांश में आये हैं । कहीं-कहीं कुछ अन्तर पाया जाता है । स्थानाभाव से यहाँ अन्तरों पर प्रकाश नहीं डाला जा रहा है । भविष्य जीवन को रूप देने वाले आचरणों से सम्बन्धित अत्यन्त महत्त्वपूर्ण वचनों में एक है छा० उप० का ५।१०।७-८ जो यों है— 'जिनके आचरण रमणीय रहे हैं वे शीघ्र ही रमणीय योनि प्राप्त करेंगे, यथा ब्रह्मण योनि या क्षत्रिय योनि या वैश्ययोनि । किन्तु जिनके आचरण कपूय ( बुरे) रहे हैं वे शीघ्र ही कपूय योनि प्राप्त करेंगे, यथा श्वयोनि, सूकरयोनि या चाण्डालयोनि । जो इन क्षेत्रों में से किसी मार्ग का अनुसरण नहीं करते वे ऐसे क्षुद्र जीव बनते हैं, जो सतत लौटते आ रहे हैं और उनके भाग्य ( नियति) को हम यों कह सकते हैं— 'जीना एवं मरना' । उनका तीसरा स्थल है । (उन दोनों मार्गों से भिन्न ) । अतः सामने का लोक पूर्ण नहीं होता अतः इस संसार से जुगुप्सा उत्पन्न होती है । यह द्रष्टव्य है कि भगवद्गीता (८/२३-२७) ने भी दो मार्गों का उल्लेख किया है, जिनमें एक वह है जिसके द्वारा जाने से योगी इस लोक में लौट कर नहीं आता और दूसरा वह है जिसके द्वारा जाने पर उसे पुन: यहाँ लौट आना पड़ता है । इन्हें शुक्ल एवं कृष्ण गति ( ८/२६ ) तथा सृति (८/२७ ) कहा गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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