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________________ હ धर्मशास्त्र का इतिहास जानते हैं जिनके द्वारा मनुष्य देवयान एवं पितृयाण नामक मार्गों में जा सकते ?), क्योंकि हमने एक ऋषि को यह कहते सुना है - 'मैंने मनुष्यों के लिए दो मार्गों की बात सुनी है, जिनमें एक पितरों की ओर जाता है और दूसरा देवों की ओर इन्हीं दोनों मार्गों पर सारा संसार जो कुछ भी पिता (आकाश) एवं माता ( पृथिवी) के बीच रहता है, चलता है ।" इन सभी प्रश्नों के विषय में श्वेतकेतु ने कहा कि वे कुछ नहीं जानते । राजकुमार ने आतिथ्य दिया, किन्तु श्वेतकेतु दौड़ कर अपने पिता के पास गये और यह जानना चाहा कि कैसे उन्होंने कह दिया था कि उन्होंने सब कुछ पढ़ा दिया है, जब कि एक राजन्य द्वारा पूछे गये पाँच प्रश्नों में एक का भी उत्तर नहीं दिया जा सका। उनके पिता ने कहा कि उन्होंने सब कुछ, जो उन्हें ज्ञात था, पढ़ा दिया था, वे स्वयं इन प्रश्नों का उत्तर नहीं जानते । वे राजकुमार के पास गये, जिसने उन्हें दान से सम्मानित किया। आरुणि को धन नहीं चाहिए था, उन्होंने प्रश्नों का उत्तर चाहा। राजकुमार ने कहा- 'शिष्य के रूप में आइए । आरुणि (गौतम) ने कहा कि वे शिष्य के रूप में ही आये हैं। राजकुमार ने कहा कि जो विद्या में पढ़ाऊँगा वह किसी ब्राह्मण पास इसके पूर्व नहीं थी । " इसके उपरान्त उन्होंने ( राजन्य या क्षत्रिय अथवा राजकुमार ने ) श्वेतकेतु को पाँचों प्रश्नों का उत्तर संक्षेप में दिया जो इस प्रकार है--पांच अग्नियाँ ( लाक्षणिक रूप में) हैं, स्वर्ग, वर्षा के देव, पृथिवी, पुरुष एवं नारी और पाँच आहुतियाँ हैं - श्रद्धा, सोम (चन्द्र), वर्षा, अन्न एवं बीज। यह चौथे प्रश्न का उत्तर हुआ। पहले एवं पाँचवें प्रश्नों का उत्तर इस वक्तव्य में है— 'कुछ लोग देवों के मार्ग से, कुछ लोग पितरों के मार्ग से जाते हैं किन्तु अन्य ( यथा -- कीड़े-मकोड़े, मक्षियों आदि) लोगों के लिए कोई मार्ग नहीं है (वे केवल जीते हैं और मर जाते हैं ) । देखिए बृ० उप० ( ६ । २ । १५-१६ ) । दूसरे एवं तीसरे प्रश्नों का उत्तर उसी प्रकार है, यथा--जो लोग पितृयाण से जाते हैं वे इस पृथिवी पर लौट आते हैं और जो ब्रह्म के पास जाते हैं वे लौट कर नहीं आते, इसी से वह लोक भर नहीं पाता । छा० उप० (५1३1२) में ये प्रश्न कुछ भिन्न रूप से पूछे गये हैं- (१) क्या आप जानते हैं कि यहाँ से लोग किस स्थान को जाते हैं ? ; (२) वे कैसे लौटते हैं ? ; (३) क्या आप जानते हैं कि देवों का मार्ग एवं पितरों का मार्ग कहाँ अलग-अलग होता है ? ; ( ४ ) लोक भर क्यों नहीं जाता ? ; (५) पाँचवीं आहुति में जल को मनुष्य क्यों कहा जाता है ? इनके उत्तर बृह० उप० एवं छा० उप० में एक-से नहीं हैं, यद्यपि वे पर्याप्त रूप में एक दूसरे से मिलते-जुलते हैं। अग्नि के पाँच अंग हैं, ईंधन, छा० उप० (५।१०।४ - ६ ) एवं बृह० उप० (६।२६ - १३ ) धूम, ज्वाला, जलते कोयले (अंगारे) एवं स्फुलिंग | में अग्नियां एक ही हैं, किन्तु उनके अंगों में थोड़ा ७. देवयान एवं पितृयाण के विषय में जो प्रश्न बृह० उप० (६ २ २ ) में पूछा गया है उसका रूप यों है : वेत्थो देवयानस्य वा पथः प्रतिपदं पितृयाणस्य वा । यत्कृत्वा देवयानं वा पन्थानं प्रतिपद्यन्ते पितृयाणं वा । अपि हि न ऋषेर्वचः श्रुतम-दे सृती अशृणवं पितॄणामहं देवानामुत मर्त्यानाम् । ताभ्यामिदं विश्वमेजत्समेति यदन्तरा पितरं मातरं च । इति । 'द्वै सुती' नामक पद ऋ० (१०८८।१५) एवं तै० ग्रा० (१।४।२ - ३ ) में पाया जाता है । द्यौः (स्वर्ग) एवं पृथिवी को क्रम से पिता एवं माता कहा गया है (ऋ० १।१६४।३१ एवं १।१६१।६ ) । ८. इस विद्या को 'पञ्चाग्निविद्या' कहा जाता है। इस उपनिषद में 'राजन्य' शब्द राजकुमार के लिए प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ है, केवल क्षत्रिय, जैसा कि पुरुषसूक्त, (१०/६०।१२) में आया है, न कि 'राजा' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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