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________________ धर्मका रक्त से सनकर एक पिण्ड के रूप में बन जायेंगे । अतः व्यक्ति न तो ब्राह्मण को धमकी दे न पोटे और न उसके शरीर से रक्त गिरने दे, क्योंकि वैसा करने से उतना ही पाप होता है।' इस वचन से ऐसा नहीं प्रतीत होता है कि इस वचन के प्रणयन के काल तक केवल पितृलोक की भावना ही बन सकी थी, जैसा कि ड्यूशन ने अपने ग्रन्थ 'फिलॉसॉफी आव उपनिषद्' ( पृ० ३२५) में लिखा है । वास्तव में, ऋग्वेद में देवयान एवं पितृयाण की कल्पना प्रबल हो चुकी थी । ऋग्वेद के अनुसार अधिक लोग यम के राज्य पितृलोक में जायेंगे, केवल थोड़े से देवयान द्वारा देवों के लोक में जायेंगे। यह वचन इस विषय में अधिक महत्त्वपूर्ण है कि एक अति घातक पाप के फलस्वरूप पापी को एक सहस्र वर्षों तक या कई सहस्रों वर्षों तक दुःख भोगना पड़ता था, अतः उसे कई जीवनों तक जन्म लेना पड़ता था, क्योंकि मानव की आयु सौ वर्ष होती है (ऋ० १० १६१९ / ४ = अथर्व ० ३।११।४ ; ऋ० ११८६ | ६ = वाज० सं० २५।२२ ) । उपर्युक्त वचन के आधार पर गौतमधर्मसूत्र ने व्यवस्था दी है कि क्रोध में आकर ब्राह्मण को धमकी देने से सौ वर्षो तक स्वर्ग का द्वार अवरुद्ध हो जायेगा ( या नरक में जाना होगा), उसे पीटने से एक सहस्र वर्षों तक तथा उसके शरीर से रक्त निकालने पर उतने वर्षों तक स्वर्ग-द्वार अवरुद्ध रहेगा जितने मिट्टी के कणों से एक रक्तरंजित पिण्ड बन जायेगा। मनु (११।२०६-७ ) ने इसे यों समझा है कि ब्राह्मण के विरुद्ध किये गये दुष्कर्मों से अभियोगी को क्रम से १००, १००० या सहस्रों वर्षों तक नरक में रहना पड़ेगा । मनुष्य अपने कर्मों एवं आचरण से अपना भविष्य बनाता है, इस सिद्धान्त की शिक्षा बृह० उप० (४/४/५-७ ) में मिलती है -"जो जैसा आचरण करता है, वह वैसा ही होगा, अच्छे कर्मों वाला अच्छा (जन्म) पायेगा, दुष्कर्मों वाला बुरा (जन्म) पायेगा ; पुण्य कर्मों से पुण्य (पवित्र) होता है। दुष्कर्मों से बुरा । यहाँ वे कहते हैं'मनुष्य काममय है, उसकी जैसी कामना होगी वैसी ही उसकी इच्छा-शक्ति होगी, उसकी जैसी इच्छा होगी वैसा ही उसका कर्म होगा, और जो कुछ कर्म वह करता है वैसा ही वह होगा वैसा ही फल वह प्राप्त करेगा ।" इस पर एक श्लोक आया है- 'जिस किसी से मनुष्य का मन एवं सूक्ष्म देह संलग्न रहता है उसी के पास अपने कम के फलों के साथ वह जाता है, और जो कुछ कर्म वह इस लोक में करता है उसका फल प्राप्त करने के उपरान्त वह पुन: उस लोक से (जहाँ वह फल प्राप्ति के कारण कुछ काल के लिए गया था), कर्मलोक में आ जाता है; इतनी बात उस व्यक्ति के लिए है जो कामयमान ( अर्थात् जो कामनाओं या इच्छाओं में डूबा हुआ है) है; अब अकामयमान के विषय में; जो व्यक्ति कामरहित है, निष्काम है, जिसके काम शान्त हो गये हैं, जो स्वयं आत्मकाम (स्वयं अपनी इच्छा ) है उसके प्राण कहीं और नहीं जाते, वह स्वयं ब्रह्म होने के कारण ब्रह्मलीन हो जाता है। इस बात पर एक श्लोक है- "जब मनुष्य के हृदय में स्थित सभी काम दूर हो जाते हैं, तो वह जो मर्त्य है, अमृत हो जाता है, यहीं इसी शरीर में वह ब्रह्म की प्राप्ति कर लेता है ।" उपर्युक्त वचन में क्रम यों है काम, इच्छा 那就发 ६. स वा अयमात्मा ब्रह्म विज्ञानमयो मनोमय इति । यथाकारी यथाचारी तथा भवति साधुकारी साधुर्भवति पापकारी पायो भवति पुण्यः पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेन । अथो खल्वाहुः । काममय एवायं पुरुष इति । स यथाकामो भवति तत्त्रतुर्भवति यत्क्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते यत्कर्म कुरुते तदभिसम्पद्यते । तदेव श्लोको भवति । तदेव सक्तः सह कर्मणेति लिङग मनो यत्र निक्तमस्य । प्राप्यान्तं कर्मणस्तस्य यत्किंचेह करोत्ययम । तस्माल्लोकात्पुनरेत्यस्मै लोकाय कर्मणे । इति नु कामयमानः । अथा कामयमानो "थोऽकामो निष्काम आप्तकाम आत्मकामो न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येति । तदेष श्लोको भवति । यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि स्थिताः । अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समनुते ॥ २० प० (४/४/५-७ ) + Jain Education International ... For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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