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________________ ३५२ धर्मशास्त्र का इतिहास देने की बात कही है । शत० ब्रा० (१०|४| ४ ) में आया है कि देव लोग अमर हो गये, क्योंकि उन्होंने प्रजापति की सम्मति से अग्नि चयन का उचित सम्पादन किया, यथा --- ३६० घेरने वाली ईंटों, ३६० यजुष्मती ईंटों, तथा उन पर ३६ और ईंटों तथा १०,८०० लोकम्पूणा ईंटों से उसे सम्पादित किया । ( १०/४/४/६ ) में आया है- 'जो व्यक्ति विद्या द्वारा तथा पवित्र कर्मों द्वारा अमर होना चाहता है, वह इस शरीर से पृथक् होने पर अमर हो जायेगा' और ! पुनः (१०|४|४|१० ) में आया है 'जो व्यक्ति इसे जानते हैं या जो यह पवित्र कर्म करते हैं, वे पुनः मरने के उपरान्त इस जीवन में आते हैं और जीवन में आने के उपरान्त अमर जीवन प्राप्त करते हैं; किन्तु वे लोग जो इसे नहीं जानते या इस पवित्र कर्म का सम्पादन नहीं करते, मरने पर पुनर्जीवन प्राप्त करते हैं और वे मृत्यु का भोजन बारबार बनते हैं । '४ तै० ब्रा० ( ३।२।८) में नचिकेता की गाथा कही गयी है जो कठोपनिषद् से मिलती है (कुछ मन्त्र दोनों में समान हैं ।) तै० ब्रा० में आया है कि मृत्यु ने नचिकेता को तीन वरदान दिये, जिनमें तीसरा कटोपनिषद् से भिन्न है । वह तीसरा वरदान यह है - " मैं पुनर्मृत्यु' किस प्रकार दूर करूँ, इसकी मुझसे घोषणा करो।" मृत्यु ने उससे नाचिकेत अग्नि घोषित का उपदेश किया, जिससे नचिकेता पुनर्मृत्यु को दूर कर सका। और देखिए कौषीकि ब्रा० (२५1१ ) एवं बृ० उप० (११२७, १५२, ३।२।१० एवं ३।३।२ ) | दुष्कृत्यों के प्रतिकार की प्राचीन भावना से ही सम्भवतः अच्छे कर्मों की यह भावना उठ खड़ी हुई कि इनको ( अर्थात् सत्कर्मों को ) दुष्कर्मों के विरोध में रखा जाय और दोनों को मानो तराजू में तोला जाय । शतपथब्राह्मण (११।२|७|३३ ) में आया है--'अब यह तराजू है, अर्थात् वेदी का दाहिना पार्श्व | वह वेदी का दाहिना पार्श्व छूकर बैठ जाय, क्योंकि, वास्तव में, वे उसे सामने के लोक में तराजू पर बैठाते हैं, और दोनों में जो ऊपर उठ जायेगा वह उसी का अनुसरण करेगा, चाहे वह अच्छा या बुरा । जो कोई इसे जानता है वह इस तराजू पर इस लोक में बता है और सामने के लोक में अर्थात् आगे के या परलोक में बैठने से छुटकारा पा जाता है, क्योंकि यह सत्कर्म ही है जो ऊपर उठता है बुरा कर्म नहीं । " शतपथ इस निष्कर्ष पर पहुँच गया था कि मनुष्य की इच्छा ( और उसी के अनुरूप उसका कार्यं) पर ही यह निर्भर है कि उसे मृत्यु के उपरान्त कौन-सा लोक प्राप्त होगा । उसमें कथित है - 'उसे ब्रह्म समझ कर सत्य का ही ध्यान करना चाहिए। अब यह पुरुष (मनुष्य) ही अधिकतर इच्छा है और अपनी इच्छा के अनुसार ही जब वह इस लोक से चलेगा तो सामने के ( अर्थात् आगे के ) लोक में भी वैसी इच्छा रखेगा ।' शतपथब्राह्मण (१०।१।५।४ ) में एक विचित्र वचन आया है जिसका सम्बन्ध यज्ञों से उत्पन्न उन शक्तियों से है जो कि सामने के ( आगे अर्थात् परलोक) लोक में प्रकट होती है। इसमें आया है कि जो व्यक्ति नियमित रूप ४. ते य एवमेतद्विदुर्ये वै तत्कर्म कुर्वते मृत्वा पुनः सम्भवन्ति ते सम्भवन्त एवामृतत्वमभि सम्भवन्यथ य एवं न विदुर्ये वै तत्कर्म न कुर्वते मृत्वा पुनः सम्भवन्ति त एतस्यैवानं पुनः पुनर्भवन्ति । शतपथब्रा० ( १० ४।३।१० ) । ५. अथ हैषैव तुला यदक्षिणो वेद्यन्तः स यत्साधु करोति तदन्तर्वेद्यथ यदसाधु तद्बहिर्वेदि । तस्माद्दक्षिणं वेद्यन्तमधिस्पृश्येवासीत । तुलायां ह वा ऽमुष्मिँल्लोक आदधति यतरद्यस्यति तदन्वेष्यति यदि साधु वाऽसाधु वेति । अथ य एवं वेदास्मिन्हैव लोके तुलामारोहत्य मुष्मिँल्लोके तुलाधानं मुच्यते । साधुकृत्या हैवास्य यच्छति न पापकृत्या । शतपथब्राह्मण ( ११।२।७।३३ ) | यहाँ पर वेदि के दाहिने पार्श्व के किनारे को तुला का दण्ड कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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