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________________ ३५० धर्मशास्त्र का इतिहास के आधार पर बने हैं) कल्पनाएँ एवं अनुमान निराधार एवं निर्मूल्य हैं। विद्वानों, विशेषतः पाश्चात्य विद्वानों को पूर्व के विषय में लिखते समय मल्लिनाथ के 'नामूलं लिख्यते किञ्चित्' नामक शब्दों को स्मरण रखना चाहिए । प्रस्तुत लेखक अनुमानों के विरुद्ध नहीं है, किन्तु उनके पीछे कोई तथ्य एवं प्रमाण अवश्य होना चाहिए । मय तो इसका रहता है कि पहले के विद्वानों के अनुमान आगे के लेखकों के लिए युक्तिसंग निष्कर्ष से लगने लगते हैं । वास्तव में हमें भारी-भरकम नामों के रौबदाब से अपनी रक्षा करनी चाहिए, बिना किसी जाँच के विश्वास नहीं कर लेना चाहिए, जैसा कि विद्वान् लेखक एवं विचारक एक्टन ने लिखा है । इस महाग्रन्थ के खण्ड ४ के मूल पृष्ठ ३८-४० में कर्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर संक्षेप में कुछ लिखा जा चुका है ( पापों एवं उनके प्रायश्चित्तों आदि के विषय में चर्चा करते समय ) । किन्तु विस्तार आगे के लिए छोड़ दिया गया था । इस अध्याय में हम इस सिद्धान्त के उद्गम एवं विकास के लिए वैदिक साहित्य की जाँच करेंगे और देखेंगे कि आगे चल कर इसमें क्या संशोधन, परिवर्तन एवं विरोध उपस्थित किये गये और आधुनिक काल में इसके विरोध में क्या तर्क उपस्थित किये जाते हैं । यह महत्त्वपूर्ण बात है कि यद्यपि कतिपय दर्शनों (यथा-सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्वमीमांसा एवं वेदान्त ) ने एक-दूसरे के सिद्धान्तों की कड़ी आलोचनाएँ की हैं, किन्तु उन्होंने कर्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त को एक स्वर से स्वीकार किया है, केवल भौतिकवादियों ( यथा चार्वाक ) ने इसे अमान्य ठहराया है । बौद्धों एवं जैनों ने इसे अपने ढंग से अपना लिया है ( जब कि वे वैदिक एवं स्मृति साहित्य के बहुत-से विषयों से असहमत हैं ) | कर्म एवं पुनर्जन्म -सम्बन्धी सभी विश्वासों के साथ कुछ सम्भावनाएँ एवं ऊहापोह चलते हैं, यथा-- - ( १ ) मनुष्य का एक आत्मा होता है, जो नित्य और भौतिक शरीर से पृथक है, (२) अन्य जीवों यथा— पशुओं, ओषधियों (पौधों) एवं सम्भव निर्जीव पदार्थों में भी आत्मतत्त्व होता है, (३) मनुष्य एवं निम्नस्तर के पशुओं का आत्मा एक भौतिक शरीर से दूसरे में प्रविष्ट हो जा सकता है, (४) आत्मा कर्म करने वाला एवं दुःख सहने वाला होता है । हमने इस महाग्रन्थ के खण्ड ४ के मूल पृ० १५४ - १७१ में विस्तार के साथ देख लिया है कि किस प्रकार स्वर्ग एवं नरक की भावनाएँ वैदिक काल से आगे तक चलीं और किस प्रकार कर्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त से वे परिमार्जित हुई । 'कर्म' शब्द ऋग्वेद में ४० बार से अधिक प्रयुक्त हुआ है । कहीं-कहीं इसका अर्थ है 'पराक्रम' या 'वीर कार्य', यथा ऋ० ( १।२२।१६, विष्णु के कर्म (पराक्रम) का निरीक्षण करो), प्रशंसा के योग्य उसके ( इन्द्र के ) प्राचीन कर्मों की घोषणा अपने शब्दों (या श्लोकों) से करो (ऋ० १।६१।१३) १ और देखिए ऋ० ( १ ६२ ६, ११०१ ४ १० ५४ ४ १०।१३१।४ ) । ऋग्वेद के कुछ स्थलों पर 'कर्म' का अर्थ है 'धार्मिक कृत्य' (यज्ञ, दान आदि), यथा 'देव लोग इस कवि के सभी कर्मों को स्वीकार करते ( या चाहते ) हैं, जो तुम्हें स्तुति देता है ( तुम्हारी वन्दना करता है) यह ऋ० (१।१४८/२ ) है । और देखिए ऋ० (८|३६|७, १. अस्य प्रब्रूहि पूर्व्याणि तुरस्य कर्माणि नव्य उक्थैः ऋ० ( १०६१।१३ ) ; तबु प्रयक्षतमस्य कर्म दस्मस्य चारुतममस्ति दंसः । उपह्वरे यदुपरा अपिन्वन मध्वर्णसो नद्यश्चतस्रः ॥ ऋ० ( ११६२।६ ) ; युवं सुरामश्विना नमुचावासुरे सचा । विपिपाना शुभस्पती इन्द्रं कर्मस्वावतम् ॥ ऋ० (१।१३१।१ ) .. २. जुषन्त विश्वान्यस्य कर्मोपस्तुतिं भरमाणस्य कारो: । ऋ० ( १।१४८।२ ) : श्यावाश्वस्य सुन्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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