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धर्मशास्त्र का इतिहास
पुराणों में पातालों की संख्या बहुधा सात मानी गयी है, किन्तु उनके नामों में कुछ अन्तर पाया जाता है। इस विषय में देखिए वायुपु० (५०।११-१२), ब्रह्मपु० (२।२-३ एवं ५४१२० तथा आगे के श्लोक), ब्रह्माण्डपु० (२।२०११० तथा आगे के श्लोक), कूर्मपु० (१।४४।१५-२५) एवं विष्णुपु० (२।५।२-३)।
योगसूत्र (३।२५, कहीं-कहीं २६ की संख्या आयी है; 'भुवनज्ञानं सूर्ये संयमात्') के व्यासभाष्य में सात लोकों (भूर्, भुवः, स्वः, महः, जन, तपः एवं सत्य) ४४, सात नरकों (अवीचि आदि), सात पातालों सात दीपों के सात पृथिवी, पृथिवी के मध्य में मेरु के साथ सात पर्वतों, वर्षों, सात द्वीपों, यथा--जम्बु, शक, कुश, क्रौंच, शाल्मलि, गोमेघ (गोमेधक नहीं, जैसा कि मुद्रित पुराणों में पाया जाता है) एवं पुष्कर, सात समद्रों, देवों की वाटिकाओं, उनके सभा-भवन (जिसका नाम सुधर्मा था, नगर का नाम था सुदर्शन, प्रासाद का माम था वैजयन्त), महेन्द्रलोक, प्रजापत्य लोक, जनलोक, तप:लोक एवं सत्य लोकों में देवों के दलों का संक्षिप्त किन्तु बहुत ही महत्त्वपूर्ण उल्लेख है । इनमें से बहुत-सी बातें पुराणों में वर्णित बातों से मिलती-जुलती हैं । इससे यह सिद्ध होता है कि चौथी शती के बहुत पहले से ही पुराणों में पाये जानेवाले जगत्-सम्बन्धी विवरण लोगों में विख्यात हो गये थे।
४४. तीन या सात व्याहृतियों के लिए प्रयुक्त शब्द लोकों के द्योतक माने जाते हैं । देखिए तै० ब्रा० (२।२।४।३)-'एता वै व्याहृतय इमे लोकाः' एवं तै० उप० (११५)-भूरिति वा अयं लोकः । भुव इत्यन्तरिक्षम् । सुवरित्यसौ लोकः। मह इत्यादित्यः। आदित्येन वाव सर्वे लोका महीयन्ते।। कूर्मपुराण (१।४४०१-४) ने महः से सत्य तक के लोकों का उल्लेख किया है।
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