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धर्मशास्त्र का इतिहास वेदान्त के उद्घोषकों के मनों में प्रयोजन अथवा उद्देश्य-सम्बन्धी तर्क उपस्थित था, यह इस बात से प्रकट है कि वेदान्तसूत्र (२।२।१, 'सेनानूपपत्तश्च नानुमानम्') ने इसे अस्वीकार किया है कि सांख्य के प्रधान (जिसे अचेतन कहा गया है) से विश्व का कारण समझा जा सकता है।
यह द्रष्टव्य है कि शंकराचार्य के मत से जो सृष्टि-सम्बन्धी विस्तृत विवेचन जो उपनिषदों में पाया जाता है उसे ज्यों-का-त्यों नहीं ग्रहण करना चाहिए, उस पर आधृत कोई विशिष्ट उद्देश्य नहीं प्राप्त होता और न ऐसा उद्देश्य श्रति (वेद) द्वारा ही व्यवस्थित किया गया है, किन्तु उन सभी विवेचनों अथवा वक्तव्यों का तात्पर्य है ब्रह्मज्ञान की ओर बढ़ना तथा ब्रह्म से जगत् की अभिन्नता घोषित करना।" अति आरम्भिक कालों से दार्शनिक लोग 'प्रथम सिद्धान्त' अर्थात् मूलतत्त्व या बीज तत्त्व के जो कि विश्व में अन्तरस्थ हैं तथा उस सिद्धान्त के, जिसके अनुसार ईश्वर स्रष्टा एवं सर्वोत्तम (परम) कहा जाता है, बीच दोलायमान रहे हैं। ऋग्वेद एवं उपनिषदें, प्रथम सिद्धान्त की कल्पना करती सी प्रतीत होती हैं, जिसके अनुसार परम तत्त्व जब विश्व की सृष्टि करता है, उसी में प्रवेश कर जाता है (तै० उप० २।६, 'तत् सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्'; छा० उप० ६।२।१, ६।३।२; बृह० उप १।४।१०)। वे भी ईश्वर को विश्व का शासन करते हुए प्रकट करती हैं (अन्तर्यामी, यथा-बृ० उप० ३।७, कौषीतकि उप० ३१८)। उन दिनों परमाणु-सिद्धान्त नहीं था। आरम्भिक यूनानी विचार भी इन्हीं दो सिद्धान्तों के बीच दोलायमान था। आगे चलकर विश्व-विद्या का सिद्धान्त प्रचारित हुआ जिसमें अणुओं का विशेष महत्त्व था, जो डेमॉक्रिटस (मृत्यु ई० पू० ३७०) द्वारा, विलियम जेम्स के मतानुसार, उद्घोषित हुआ था तथा लुकेटियस द्वारा व्याख्यायित हुआ था। भारत में भी वैशेषिकों ने एक सिद्धान्त प्रतिपादित किया जिसके अनुसार विश्व परमाणुओं का पुञ्ज है। कणाद या कणभक (जो कणों, अर्थात् अत्यन्त सक्ष्म पदार्थों को खाता है अर्थात् उन के विचार पर जीता है) को वैशेषिक सिद्धान्त का प्रवर्तक कहा जाता है। कणाद ने स्पष्ट रूप से ईश्वर के बारे में कुछ नहीं कहा। किन्तु न्याय-वैशेषिक के पश्चात्कालीन लेखकों ने ईश्वर एवं परमाणओं को एक में मिला दिया। तर्कदीपिका (१०६) ने इस सिद्धान्त को इस प्रकार रखा है--जब ईश्वर सष्टि करना चाहता है तो परमाणओं में त्रिया उत्पन्न हो जाती है, दो परमाणु मिल जाते हैं, व्यणुक (द्यद् ) की उत्पत्ति होती है, व्यणुक की उत्पत्ति तीन व्यणुकों से होती है और अन्त में यह बड़ी पृथिवी उत्पन्न हो जाती है ; सृष्ट पदार्थों को जब ईश्वर समाप्त कर देना चाहता है तो परमाणुओं में क्रिया उत्पन्न हो जाती है। परमाणु नित्य हैं और संख्या में अनन्त हैं।
४. अतो रचनानुपयत्तेश्च हेतो चेतनं जगत्कारणमनुमातव्यं भवति । शांकरभाष्य (वे० सू० २।२।१)।
५. वैदिक वचनों में पायी जाने वाली विश्व-विद्या के विषय में निम्नलिखित ग्रन्थ पढ़े जा सकते हैं : एच डब्ल० वालिस कृत 'कॉस्मॉलॉजी आव दि ऋग्वेद' (१८८७); मेक्डॉनेल कृत 'वेदिक माइथोलॉजी (पृ० ८-१५); ए० एस० गेडेन द्वारा अनूदित फिलॉसॉफी आव दि उपनिषद्स' (१६०६, पृ० १८०-२५३); ए० बी० कृत 'रिलिजन एण्ड फिलॉसॉफी आव दि वेद एण्ड दि उपनिषद्स' (पृ० ५७०-५८४) । अभी हाल में मिल्टन के० म्यूनिज ने 'थ्योरीज आव दि यूनिवर्स' नामक ग्रन्थ प्रकाशित कराया है (फ्री प्रेस, ग्लेको, १६५७) जिसमें बेबिलोनिया से लेकर सभी देशों तथा आज के विज्ञान में पायी जाने वाली विश्व-विद्याओं का उल्लेख है। किन्तु भारतीय सामग्री से कोई लाभ नहीं लिया गया है।
६. ईश्वरस्य चिकिर्षावशात्परमाणुषु क्रिया जायते। ततः परमाणुद्वय संयोगे सति व्यणुकमुत्पद्यते त्रिभिदूर्यणुकस्त्र्यणुकम। एवं चतुरप्रकादिक्रमेण महती पृथिवी...वायु-रुत्पद्यते।... एवमुत्पन्नस्य कार्यद्रव्यस्य सजिहीर्षावशात् परमाणुषु क्रिया। तर्कदीपिका (पृ०६, अथल्ये का द्वितीय संस्करण, १६१८) ।
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