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________________ ३०२ धर्मशास्त्र का इतिहास 1 । योग के बनाना चाहता है कि मानव उसे इसी जीवन में, व्यक्ति एवं सम्पूर्ण समाज के भीतर जान ले प्राचीन सिद्धान्त आध्यात्मिकता एवं जीवन में संश्लेषण एवं एकता ला न सके। उन्होंने जगत् को माया या भगवान् की क्षणभंगुर लीला कहकर छोड़ दिया और इसका परिणाम यह हुआ कि जीवन से शक्ति एवं आश्रय की परिसमाप्ति हो गयी और भारत का अध: पतन हो गया ।' उपर्युक्त शब्दों में श्री अरविन्द अपने संश्लिष्ट योग एवं प्राचीन तथा मध्यकालीन भारतीयों के योग के अन्तर को बताते हैं । योग के इस सिद्धान्त में कोई नवीन बात नहीं है। गीता में यही बात युगों पूर्व कह दी गयी है, यथा-गीता ५।१५ 'अज्ञानेनावृतम्', 'उत्सीदेयुरिमे लोका:' ( गीता २।२४-२५, २२४७, ३३८, १६, ६।२७, १८।४५-४६, ये सब इसी पर बल देते हैं कि निष्काम कर्म ही भगवान की पूजा है ) । श्री अरविन्द को अपनी इच्छा के अनुसार कुछ शिष्यों को इस कार्य में लगा देना चाहिए था । पातञ्जल योग ने 'माया' शब्द का प्रयोग नहीं किया है और न उसमें यही कहा गया है कि यह जगत् ईश्वर की लीला है । वेदान्तसूत्र ने ही एक विरोध को दूर करने के रूप में ऐसा कहा था ( २1१1३३, 'लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्) । पातञ्जल योग में ईश्वर का संसार-सृष्टि से कोई सम्बन्ध नहीं है, प्रत्युत इसने अविद्या की चर्चा की है जिससे जीवात्मा जकड़ा रहता है ( योगसूत्र २३ - ५ एवं २४ ) न कि ईश्वर या परमात्मा । इतना ही नहीं, स्वयं श्री अरविन्द के प्रश्न पर प्रतिप्रश्न किया जा सकता है - 'संश्लिष्ट योग, मन, प्रमन एवं अतिमन की आवश्यकता या उपयोगिता क्या है ?' क्या कोई कम से कम केवल आधे दर्जन श्री अरविन्द के अनुयायियों की ओर संकेत कर सकता है, जिन्होंने उनके सिद्धान्त या संकल्पों के अनुसार देश एवं मानव समाज के पुनरुद्धार के लिए अपनी शक्तियाँ लगायी हों ? इस विषय में कुछ और कहना यहाँ समीचीन नहीं है । श्री अरविन्द के कई ग्रन्थ हैं जो आकार एवं प्रकार में विशद एवं विस्तृत हैं। उनके ग्रन्थों की तालिका के लिए देखिए श्री दिवाकर का ग्रन्थ 'महायोगी' ( पृ० २६७- २६६ ) । प्रस्तुत लेखक ने उनके निम्नलिखित ग्रन्थ पढ़े हैं, यथा- 'योग एण्ड इट्स आब्जेक्टस' ( १६३८, जिसमें यह दर्शाया गया है कि अध्यात्म योग हठयोग एवं राजयोग से अपेक्षाकृत उच्च है), 'दि मदर' (१६३७), 'एसेज ऑव दि गीता' (पाँचवाँ संस्करण, १६४६), 'दि सिंथेसिस आव योग' (१६४८), जिसमें यह दिखाने का प्रयत्न किया गया है कि ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग नामक तीनों मार्गों का समन्वय हो सकता है, 'दि प्राब्लेम आव रीबर्थ' (आश्रम द्वारा प्रकाशित, १६५२); 'फाउण्डेशन्स आव इण्डियन कल्चर' (कई निबन्ध हैं, जिनका सुधार स्वयं अरविन्द ने किया है, न्यूयार्क, १६५३), 'लाइफ डिवाइन' (मौलिक तीन खण्डों में, किन्तु अब १२७२ पृष्ठों में प्रकाशित, अरविन्द इण्टरनेशनल यूनिवर्सिटी सेण्टर, पांडिचेरी, १६५५ ) । प्रस्तुत लेखक ने अन्तिम पुस्तक का प्रथम खण्ड ही पढ़ा है । किन्तु सामान्य लोगों की बुद्धि इन ग्रन्थों को पढ़ने एवं समझने में असमर्थ है । 'लाइफ डिवाइन' के शब्द, शब्द - विन्यास एवं भाव बड़े गूढ़ एवं अलौकिक अर्थ वाले हैं, जिन्हें प्रस्तुत लेखक जैसे सामान्य जन समझ सकने में असमर्थ हैं । प्रस्तुत लेखक के मत से 'फाउण्डेशंस ऑव इण्डियन कल्चर' उनकी सर्वश्रेष्ठ पुस्तक है जिसे उसने पढ़ लिया है। प्रो० आर० डी० रानाडे ने 'भगवद्गीता ऐज ए फिलॉसॉफी ऑव गॉड रीयलाइजेशन' (नागपुर, १६५६, पृ० १६३-९७६) में श्री अरविन्द के ग्रन्थ 'एसेज आन दि गीता' की जाँच की है और कई स्थलों पर अपना मतभेद प्रकट किया है। श्री अरविन्द के दर्शन की बृहत् जानकारी के लिए देखिए डा० हरिदास चौधरी एवं डॉ० फ्रेडरिक स्पीगेलबर्ग द्वारा सम्पादित ग्रन्थ 'इण्टीग्रल फिलॉसॉफी आव अरविन्द' (एलेन एवं अन्विन, १६६०), जिसमें भारतीय एवं पाश्चात्य लेखकों के ३० निबन्ध संगृहीत हैं । पृ० ३२ पर 'माइण्ड ' ( मन ) एवं सुपरमाइण्ड ( अतिमन ) की व्याख्या उपस्थित की गयी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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