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________________ योग एवं धर्मशास्त्र २६३ इस खण्ड के अध्याय २६ में सिद्धियों का उल्लेख हुआ है। देवलधर्मसूत्र ने सिद्धियों पर एक लम्बी टिप्पणी की है, जिसका उद्धरण कल्पतरु (मोक्ष०, पृ० २१६-२१७) द्वारा दिया गया है। याज्ञ० (३।२०२-२०३) ने योगसिद्धि के कुछ विशिष्ट लक्षणों का उल्लेख किया है, यथा--अन्तर्धान होना, पूर्व जीवन की बातों को स्मरण कर लेना, सुन्दर रूप धारण कर लेना, अतीत एवं भविष्य की घटनाओं एवं दूर के विषयों को देख लेने की समर्थता प्राप्त कर लेना, दूर पर क्या कहा जा रहा है उसे जान लेना, अपने शरीर को छोड़कर अन्य के शरीर में प्रवेश कर जाना, अपने मन के अनुरूप बिना किसी साधन एवं उपकरण के वस्तु की सष्टि कर लेना। तन्त्र वाले अध्याय में हमने मन्त्रों के विषय में विशद रूप से पढ़ लिया है। देखिए इस खण्ड का अध्याय २६ । मन्त्रों के विषय में दो सिद्धान्त हैं, जिनमें एक है कम्पन सिद्धान्त (वाइब्रेशन थ्योरी), अर्थात् मन्त्र के शब्द मौलिक प्रणेता एवं प्रयोगकर्ता की कुछ शक्तियों से अभिभूत रहते हैं और जब मन्त्र का पाठ किया जाता है तो कुछ अज्ञात कम्पन उठ खड़े होते हैं जिनसे उस उद्देश्य की पूर्ति होती है जिसके लिए वह मन्त्र कहा जाता है। दूसरा सिद्धान्त यह है कि मन्त्र प्राचीन काल से किसी महान मनि के अन्तःकरण से निर्गत होकर आया रहता है, निर्देश करने की इसकी शक्ति महान होती है। किन्तु प्रस्तुत लेखक के मत से मन्त्र की वास्तविक शक्ति उसे उच्चारण करने वाले व्यक्ति के ज्ञान, उसकी प्रतिक्रियाशीलता एवं उसकी आध्यात्मिक शक्ति पर निर्भर रहती है। इस विषय में कोई वैज्ञानिक प्रयोग नहीं किया गया है और विभिन्न ग्रन्थ विभिन्न ढंगों से उपर्युक्त सिद्धान्तों में किसी एक को अतिशयोक्ति के साथ महत्त्व देते हैं। सभी कुछ मात्र कल्पना या वितर्कना है। वास्तव में, दूसरे सिद्धान्त पर अधिक बल दिया जा सकता है, क्योंकि इसमें मानव-मनोविज्ञान की स्पष्ट झलक है। पहले सिद्धान्त के विषय में उतना अतिचार (असीम माहात्म्य) बढ़ गया कि प्रसिद्ध मन्त्र 'ओम् मणिपद्मे हुम्' (जो अवलोकितेश्वर देवता का है) बहुत लाभकारी माना जाने लगा, जब कि उसे किसी वस्तु पर लिखकर और किसी चक्र (पहिया) पर सटा कर सैकड़ों बार घुमाया जाये ! दूसरे सिद्धान्त से गुरु एवं दीक्षा की महत्ता बढ़ गयी, और इस विषय में भी अतिचार का महत्त्व अधिक हो गया। किन्तु इस सिद्धान्त में एक विशिष्ट बात यह पायी जाने लगी कि शिष्य को तदनुरूप योग्यता के लिए प्रयत्नशील होना पड़ा , अर्थात् उसे गुरु के प्रति श्रद्धा प्रवाहित करनी पड़ी, उसे आध्यात्मिक बातों में अभिरुचि लेनी पड़ी। शास्त्रों के सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त करना पड़ा तथा गुरु की दी हुई शिक्षा में अभ्यासमग्न होना पड़ा। गुरु एवं शिष्य के सम्बन्ध में विशिष्ट जानकारी के लिए देखिए शिवसंहिता (३।१०-१६) । तिथि एवं स्थान के साथ नहीं प्रकाशित हुआ है। डा० अलेक्जेण्डर कैनन ने अपनी पुस्तक 'दि इनविजिबल इंफ्लुएंस (१६३५, पृ० ३६-४१) में लघिमा पर एक व्यक्तिगत अनुभव का उल्लेख किया है। पता नहीं श्री ए. कोयेस्टलर महोदय इस कथन से परिचित हैं या नहीं। ७६. देवलधर्मसूत्र की लम्बी टिप्पणी का कछ अंश यों है-'अणिमा महिमा लघिमा प्राप्तिः प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं यत्रकामावसायित्वं चाष्टावैश्वर्यगुणाः । तेषामणिमा महिमा लघिमा त्रयः शारीराः॥ प्राप्त्यादयः पञ्चन्द्रियाः।... शरीराशुगामित्वं लघिमा। तेनातिदूरस्थानपि क्षणेनासादयति । विश्वविषयावाप्ति प्राप्तिः। प्राप्त्या सर्वप्रत्यक्षदर्शी भवति। ... अप्रतिहतैश्वर्यमीशित्वम् । ईशित्वेन दैवतान्यपितिशेते।... यत्रकामावसायित्वं त्रिविधम-छायावेशः, अवध्यानावेशः, अंगप्रवेश इति। यत् परस्य अंगप्रवेशमात्रेण चित्तं वशीकरोति स छायावेशः । यद् दूरस्थानामपि अनुध्यायन चित्ताधिष्ठानं सोऽवध्यानावेशः। यत्सजीवस्योभिस्ते (?) जीवस्य वा शरीरानुप्रवेशनं सोऽङ्गप्रवेशः; अन्तर्धानं स्मृतिः कान्तिदृष्टिः श्रोत्रज्ञता तथा। निजं शरीरमुत्सृज्य परकायप्रवेशनम् । अर्थानां छन्दतः सृष्टिर्योगसिद्धेश्च लक्षणम् ॥ यज्ञि० (३।२०२-२०३)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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