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________________ अध्याय ३१ धर्मशास्त्र एवं सांख्य सांख्य प्रसिद्ध छह दर्शनों में एक दर्शन है । शंकराचार्य ने वेदान्तसूत्र ( २/२/१७ ) के शारीरक भाष्य में कहा है कि वेदविद् मनु आदि ने कुछ सीमा तक अपने ग्रन्थों में सांख्य के सिद्धान्त को ग्रहण किया है। विशेषत: यह सिद्धान्त के उस अंश पर निर्भर है, जहाँ यह कहा गया है कि कार्य पहले से ही कारण में उपस्थित रहता है । इसी प्रकार वे० सू० ( १ | ४ | २८) की व्याख्या में उन्होंने कहा है कि सूत्रकार एवं स्वयं उन्होंने सांख्य सिद्धान्तों के खण्डन में बड़ा परिश्रम किया है (उन्होंने परमाणुकारणवाद के सिद्धान्त का इस प्रकार खण्डन नहीं किया है ), क्योंकि सांख्य सिद्धान्त वेदान्तवाद के पास आ जाता है और कारण एवं कार्य के अनन्यभाव के दृष्टिकोण को स्वीकार कर लेता है, तथा देवल जैसे कुछ धर्मसूत्रकारों ने अपने ग्रन्थों में इसका आश्रय लिया है । वे० सू० (२1१1३ ) की व्याख्या में शंकर ने टिप्पणी की है कि यद्यपि बहुत सी स्मृतियों ने आध्यात्मिक बातों का निरूपण किया है, किन्तु सबसे अधिक उद्योग सांख्य एवं योग के सिद्धान्तों के खण्डन में ही लगाया गया है, क्योंकि मनुष्य के परम लक्ष्य की प्राप्ति के साधन के रूप में दोनों सिद्धान्त विश्व में प्रसिद्ध हैं, तथा उन्हें शिष्टों (आदरणीय एवं विद्वान् लोगों) ने स्वीकार किया है और उनके पक्ष में वैदिक संकेत निलते हैं (यथा श्वेताश्वतरोपनिषद् - 'तत्कारणं सांख्ययोगाभिपन्नम् ' ६।१३ ) | यह आगे व्यक्त किया जायगा कि मन एवं देवल ने कुछ सांख्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन भी किया है और उनका आधार भी लिया है। सांख्य सिद्धान्त के उद्गम एवं विकास के विषय में कुछ शब्द लिख देना अनावश्यक नहीं माना जायगा । सांख्य के उद्गम की समस्या भारतीय दर्शन की कठिनतम समस्याओं में एक है। सांख्य सिद्धान्त पर बहुतसे ग्रन्थ एवं निबन्ध लिखे गये हैं । वह आरम्भिक सांख्य शिक्षा क्या थी, जिसे ईश्वरकृष्ण ने 'सांख्यकारिका' १. प्रधानकारणवादो वेदविद्भिरपि कैश्चिन्मन्वादिभिः सत्कार्यत्वाद्यंशोपजीवनाभिप्रायेणोपनिबद्धः । अयं तु परमाणु कारणवादो न कैश्चिदपि शिष्टैः केनचिदप्यंशेन परिगृहीत इत्यत्यन्तमेवानादरणीयो वेदवादिभिः । शंकर (वे० सू० २।२।१७ - अपरिग्रहाच्चात्यन्तमनपेक्षा ); "ईक्षतेन शब्दम्" इत्यारभ्य प्रधानकारणवादः सूत्ररेव पुनः पुनराशङक्य निराकृतः, तस्य हि पक्षस्योपोद्वलकानि कानिचिल्लिङगाभासानि वेदान्तेष्वापातेन मन्दमतीन्प्रतिभान्तीति । स च कार्य कारणानन्यत्वाभ्युपगमात्प्रत्यासन्नो वेदान्तवादस्य । देवलप्रभृतिभिश्च कश्चिद्धर्मसूत्रकारः स्वग्रन्थेष्वाश्रितस्तेन तत्प्रतिषेधे यत्नोऽतीव कृतो नाण्वादिकारणवादप्रतिषेधे । शाङ्करभाष्य ( वे० सू० ११४ | २८ ) | २. जो लोग सांख्य में अभिरुचि रखते हैं वे निम्नलिखित ग्रन्थों एवं निबन्धों को पढ़ सकते हैं। फिट्ज एडवर्ड हाल का 'इण्ट्रोडक्शन टु सांख्य-प्रवचन-भाष्य' (बिब्लियोथिका इण्डिका सीरीज, १८५६ ) ; 'सांख्यकारिका' जिस पर जॉन डेवीज ने टिप्पणी की है, जिसका उन्होंने अनुवाद किया है तथा कपिल के सिद्धान्त को समझाया है। (१८८१ में सर्वप्रथम प्रकाशित, दूसरा संस्करण १६५७, कलकत्ता) : रिचर्ड गावे का 'डाई सांख्य फिलॉसॉफी', Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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