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धर्मशास्त्र से सम्बन्धित मीमांसासिद्धान्त एवं व्याख्या के नियम
२१३ आल्यातानामर्थ अवतां शक्तिः सहकारिणी-शबर (जै० १।४।२५), अर्थसंग्रह (पृ० १६, जहाँ यह न्याय कहा गया है), श्लोकवार्तिक (चोदनासूत्र, श्लोक ४७, पृ० ५६), तन्त्रवा० (जै० २।१।१, पृ० ३७८--शक्तय: सर्वभावानां नानुयोज्याः स्वभावतः । तेन नाना वदन्त्यर्थान् प्रकृतिप्रत्ययादयः ॥)।
आगन्तूनामन्ते निवेशः--शबर (जै० ५।३।४ एवं १०१।१); शांकरभाष्य (वे. सू० ४।३।३); तिथिसत्त्व (पृ० ६३) एवं व्य० म० (पृ० १४३) ।
आनन्तर्यमकारणम्-देखिए आगे, 'यस्य येनार्थसम्बन्ध ।' देखिए सूत्र 'आनन्तर्यमचोदना' (जै० ३।१।२४, एवं १४।३।११ जिसका एक अंश यह है-'अर्थतो ह्यसमर्थानामानन्तर्येप्यसम्बन्धः ।'
आत्यंधिकरणन्याय-जै० (४।४।२२); तै० ब्रा० (३७११७-८) में आया है : 'यस्योभयं हविरातिमाच्छेदैन्द्रं पञ्चशरावमोदनं निर्वपेत।' यहाँ पर 'उभय' शब्द अविवक्षित है और विधि का कोई भाग नहीं है ।
उद्दिश्यमानस्य (या उद्देश्यगत) विशेषणम विवक्षितम्-टुप्टीका (ज० ६।४।२२, पृ० १४३८, ७।१।२, पृ० १५२६, ६।१।१, पृ० १६३६, १०।३।३६, पृ० १८८२, 'उद्दिश्यमानस्य च संख्या न विवक्ष्यते ग्रहस्येव' ; व्य० म० (पृ० ४५-४६, ६०, १३२, २१० एवं विश्वरूप (याज्ञ० ३।२५०; 'न च लक्ष्यमाणस्य विशेषणं विवक्षितमिति न्यायः')।
- उद्भिदधिकरण-जै० (१।४।१-२), उद्भिद्, चित्रा, अग्निहोत्र यागों के नाम (गुणविधि नहीं) हैं और प्रमाण हैं। देखिए मामतो (वे० सू० ३।३।१७) ।
उपसंहारन्याय-जै० (३।१।२६-२७); उपसंहारो नाम सामान्यत: प्राप्तस्य विशेष संकोचरूपो व्यापारविशेषो विधेः । मी० न्या० प्र० (पृ० २६१); देखिए मिता० (याज्ञ० ११२५६); निर्णयसिन्धु (पृ० ३७ एवं ७१); व्य० म० (पृ० १११), प्रस्तुत लेखक की टिप्पणी, व्य० म० (पृ० १७६)।
ऋतुलिंगन्याय—यह आदिपर्व (१।३६), शान्तिपर्व (२१०।१७) के इस श्लोक की ओर संकेत करता है-'यथावृतुलिंगानि नानारूपाणि पर्यये । दृश्यन्ते तानि तान्येव यथा भावा युगादिषु ॥' देखिए तन्त्रवा० (जै० १।३।७, पृ० २०२) एवं शांकरभाष्य (वे० सू० १।३।३०) जहाँ यह श्लोक उद्धृत है । यह वायुपुराण (६६५), विष्णुपुराण (११५॥६१) एवं मार्कण्डेय० (४५।४३-४४) है।
एकवाक्यतान्याय-जै० (२।११४६) । और देखिए म० म० गं० झा कृत 'पूर्वमीमांसासूत्र इन इट्स सोर्सेज' (पृ० १६२-१६३ । विश्वरूप (याज्ञ० ३।२४८) ने इस न्याय को उदाहृत किया है। 'एकवाक्यता' शब्द वे० सू० (३।४।२४) में आया है।
एकहायनोन्याय-तन्त्रवा० (२।१।१२, पृ० ४१५) द्वारा उल्लिखित । यह 'अरुणान्याय' के समान ही है।
एकार्थास्तु विकल्पेरन्—यह जै० (१२।३।१०) का अंश है। देखिए मिता० (याज्ञ० ३।२५७) जहाँ ऐसा कहा गया है-'एकार्थानामेव विकल्पो व्रीहियवयोरिव न च दण्डतपसोरेकार्थत्वम।'
ऐन्द्रोन्याय--देखिए मैत्रा० सं० (३।२।४); भामती (वे० सू० ३।३।२५); पू० मी० सू० (३।३।१४); शबर (३।३।१३)।
औवमेधिन्याय-यदि किसी व्यक्ति का नाम औदमेघि है तो अचानक ऐसा भान होता है कि वह ऐसे व्यक्ति का पुत्र है जिसका नाम उदमेघ है। देखिए शबर (जै० ३।५।२६, पृ० १००३ एवं २।३।३, पृ० ५८०) एवं तन्त्रवा० (पृ० ५८०) ।
औदुम्बराधिकरण-जै० (१।२।१६-२५) जहाँ तै० सं० (२।१।१।६) का उद्धरण है, यथा--औदुम्बरो यूपो भवति, ऊर्ग वा उदुम्बर ऊर्क पशवः' , तन्त्रवा० (पृ० ३५२), मी० न्या० प्र० (पृ० १३४))।
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