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धर्मशास्त्र से सम्बन्धित मीमांसा सिद्धान्त एवं व्याख्या के नियम
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चर्चा करते हुए उपर्युक्त वचन का सहारा लिया है और कहा है- 'घृत, पके चावल एवं समिधा आदि के साथ चारों दिशाओं में होम करना चाहिए' और घोषित किया कि 'घृत का होम स्रवा से, हवि (पके चावल आदि का ) का होम स्रुची ( एक चम्मच ) से तथा समिधा का ( दाहिने हाथ से होम करना चाहिए, क्योंकि ये साधन उनके (घृत, हवि एवं समिधा के लिए उपयुक्त हैं। व्यवहारमयूख ने ऐसा कहते हुए रघुनन्दन की आलोचना की है, क्योंकि रघुनन्दन ने दायतत्त्व में ऐसी व्यवस्था दी है कि इन तीनों का होम एक साथ होना चाहिए, पृथक-पृथक नहीं । तै० सं० ( ११६/८/२ ) में वर्णित दस पक्षिय उपकरणों के लिए भी यही नियम प्रयुक्त होता है, यथा-- स्फुय ( लकड़ी की तलवार ), घटशकल ( तवा ) आदि । यहाँ पर पूर्वपक्ष यह है कि यज्ञ में किसी उद्देश्य के लिए इनमें से कोई भी पात्र प्रयुक्त हो सकता है; स्थापित निष्कर्ष यह है ( पू० मी० सू० ३।१।११ एवं ४।१।७ - १० ) कि दस उपकरणों का उल्लेख केवल अनुवाद है और यह वर्णन पूर्वपक्ष के कथन के अनुसार नहीं समझा जाना चाहिए, प्रत्युत इनमें से प्रत्येक का उपयोग उसी उद्देश्य से होना चाहिए जिसके लिए वैदिक वचनों में व्यवस्था है (यथा--- घटशकल पर पुरोडाश पकाया जाता है), ओखली में मूसल से चावल कूटा जाता है। देखिए इस महाग्रन्थ का खण्ड २, पृ० ६८५ पाद-टिप्पणी २२३३, जहाँ दस उपकरणों (यज्ञपात्रों या यज्ञायुधों आदि का उल्लेख है । ६
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एक ही वाक्य में एक ही शब्द का प्रयोग दो अर्थों में नहीं होना चाहिए, अर्थात् मुख्य एवं गौण दोनों अर्थों में प्रयोग नहीं होना चाहिए । दायभाग ( ३।२६-३०, पृ० ६७ ) ने इस उक्ति का सहारा लिया है। जब भाई (एक ही माँ के पुत्र) बँटवारा करते हैं तो याज्ञ० ( २।१२३ ) ऐसी स्मृतियों ने व्यवस्था दी है कि माँ को भी पुत्र के बराबर ही भाग मिलता है । इस पर दायभाग ने टिप्पणी की है कि 'माता' शब्द (याज्ञ० २।१२३ ) आदि में का मुख्य रूप से अर्थ है - जननी ( जन्म देने वाली ), इस स्मृति - नियम का सम्बन्ध विमाता से नहीं है, क्योंकि एक ही वाक्य में एक ही शब्द मुख्य एवं गौण अर्थ में प्रयुक्त नहीं होता । किन्तु इतना कह देना आवश्यक है कि सभी धर्मशास्त्र ग्रन्थ इस नियम को नहीं मानते । अपरार्क ( पृ० ७३०) ने याज्ञ०
हस्तेन च उत सर्वेषमार्थतो व्यवस्था ।' पूर्वपक्ष यह है : ('अविशेषाभिधानादव्यवस्थेति ।' निष्कर्ष यह है : 'अर्थाद्वा कल्पना, सामर्थ्य त्कल्पनेति स्रुवेणावद्येद्यथा शक्नुयात् तथा यस्य शक्नुयात् तस्य चेति । आख्यातशब्दानामर्थं ब्रवतां शक्तिः सहकारिणी । एवं चेद्यथाशक्ति व्यवस्था भवितुमर्हति । तथा अञ्जलिनां सक्तून प्रदाव्ये जुहोति इति ।' यह अन्तिम तै० सं० ( ३।३।८ ) से उद्धृत है। देखिए व्य० म० ( पृ० ५४) जहाँ प्रस्तुत लेखक ने इस उक्ति की व्याख्या प्रस्तुत की है। उपर्युक्त वचन पर शास्त्रदीपिका ने यह टिप्पणी दी है : 'तस्माच्छक्तिसहायो विधिरेव यथा सामर्थ्यं विधेयं व्यवस्थापयति ।'
१६. ० सं० (१।६।८।२ - ३ ) में आया है : यो वं दशयज्ञायुधानि वेद मुखतोस्य यज्ञः कल्पते स्प्यश्च कपालानि चाग्निहोत्रहवणी च शूर्प च कृष्णाजिनं च शम्या चोलूखलं च मुसलं च दृषच्चोला चैतानि वे दशयज्ञायुधानि ।' शेष बातें देखिए इस महाग्रन्थ का संक्षिप्त अनुवाद भाग १, पृ० ५१३, पाद्- टिप्पणी ।
१७. अन्यायश्चानेकार्थत्वम् । शबर ( ३।२।१ एवं ७।३।३ ) ; न ह्येकस्य शब्दस्यानेकार्थता सत्यां गतौ न्याय्या | शबर ( ८।३।२२ ) । देखिए शबर ( ६ | ४|१८ ) पर भी । शंकराचार्य ने अपने भाष्य (ब्रह्मसूत्र २०४ | ३) में इस नियम को अति स्पष्ट ढंग से रखा है : 'न ह्येकस्मिन्प्रकरणे एकस्मिश्च वाक्ये एकः शब्दः सकृतच्चरितो बहुभिः सम्बध्यमानः क्वचिन्मुख्यः क्वचिद् गौण तत्यध्यवसातुं शक्यम् । वैरूप्यप्रसंगात् ।
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