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________________ धर्मशास्त्र से सम्बन्धित मीमांसा सिद्धान्त एवं व्याख्या के नियम में--'वह वसन्त में अग्नि को प्रात:काल काली गर्दन वाला पक्षी, ग्रीष्म में मध्याह्न (दोपहर) काल में कई र गो वाला पक्षी, शरद में बहस्पति को श्वेत रंग का पक्षी देता है, मादा पक्षी की ओर संकेत है, क्योंकि उसके उपरान्त 'वे गर्भवती हो जाती हैं' (भिणायो भवन्ति) शब्द आ जाते हैं। धर्मशास्त्र ग्रन्थ बहुधा कहते है कि बहुत-से वचनों में प्रयुक्त पुंल्लिग शब्दों में स्त्रियाँ मम्मिलित नहीं हैं। उदहरणार्थ, अग्निपुराण (१७५॥ ५६-६१) ने सामान्य रूप से सभी व्रतों में मान्य नियमों की चर्चा करते हुए व्यवस्था दी है कि व्रत करने वाले व्यक्ति को स्नान करना चाहिए, व्रतमूतियों (व्रता वाले देवताओं की मूर्तियों) की पूजा करनी चाहिए, ग्रत के उपरान्त जप एवं होम करना चाहिए, और सामर्थ्य के अनुसार दान करना चाहिए तथा २४, १२, ५ या केवल ३ विप्रों को भोजन देना चाहिए । निर्णयसिन्धु (पृ. २४) ने इसे पृथ्वीचन्द्र से उद्धृत किया है और कहा है कि यहाँ केवल पुल्लिग शब्द 'विप्राः' आया है, अत: केवल ब्राह्मणों को ही भोजन देना चाहिए न कि स्त्रियों को भी ।२ इस नियम के विरोध में हेमाद्रि १3 ने पदा० को उद्धृत करते हुए लिखा है--'यदि कोई नारी गर्भवती हो, अभी-अभी जननक्रिया हुई हो (सौरी में हो), या बीमार हो या अशुद्ध हो गयी हो, तो उसे किसी अन्य व्यक्ति द्वारा व्रत करा लेना चाहिए, और जब वह शुद्ध हो जाय तो उस व्रत को स्वयं भी कर सकती है।' इस पर निर्णयगिन्धु का कथन है कि यह नियम पुरुषों के लिए भी लागू होता है, जब कि वे अशुद्ध हो जाते हैं, क्योंकि यहाँ पर लिग पर आरुढ रहना आवश्यक नहीं है। शब्दों एवं वाक्यों की व्याख्या के लिए मीमांसा ने नियमों का निर्देश किया है। सर्वप्रथम शब्द-सम्बन्धी कुछ नियमों के दृष्टान्त दिये जा रहे हैं--(१) शबर ने अपने भाप्य के प्रथम वाक्य में ही यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया है कि जैमिनि के सूत्रों एवं वेद के शब्दों को यथासम्भव उसी अर्थ में लेना चाहिए जिसमें वे सामान्यत: प्रचलित आनार या प्रयोग में समझे जाते हैं, न कि उन्हें गौण या पारिभाषिक अर्थ के रूप में समझना चाहिए। यही नियम जैमिनि द्वारा (३।२।१-२) 'देवों के निवास स्थान के लिए मैं 'बहिस्' को काटता है' नामक मन्त्र में प्रयुक्त 'वहिस्' शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में प्रतिपादित हुआ है। यहाँ पर निष्कर्ष यह है कि 'बहिस्' शब्द को हम प्रमुख अर्थ में, अर्थात् 'एक मुट्ठी कुश के अर्थ में लेना चाहिए, न कि इस गौण अर्थ के रूप में कि यह कुश है या कोई अन्य प्रकार की घास है। शबर ने निम्न लिखित निष्कर्ष उपस्थित किया हैकिसी शब्द के मुख्य एवं गौण अर्थों में प्रस्तुत कार्य के सिलसिले में मुख्य अर्थ को ही ग्रहण करना उचित परान्हे श्वेतां बार्हस्पत्याम्' एवं तै० सं० (२।१।२।६) में ऐसा आया है--'गभिणयो भवन्ति, इन्द्रियं वै गर्भ इन्द्रियमेवास्मिन् दधति ।' १२. पृथ्वीचन्द्रोदयेऽग्निपुराणे-स्नाात्वाव्रतवता सर्वव्रतेषु व्रतमूर्तयः। पूज्याः सुवर्णमप्याद्याः....व्रतान्ते दानमेव च । चतुविश...पञ्च वा त्रय एव च। विप्रा भोज्या यथाशक्ति तेभ्यो दद्याच्च दक्षिणाम् । अत्र विप्रा इति पुल्लिंगनिर्देशात् पुमांस एव भोज्याः, न तु स्त्रियः । एवं सहस्रभोजनादावपि । विस विनाऽयुक्तत्वात् । नि० सि० (प० २४)। इसने शबर के भाष्य (पू० मी० सू० ३।३।१७ एवं १६) पर भी निर्भर किया है। १३. तथा हेमाद्रौ पाझे। गर्भिणी सूतिकादिश्च कुमारी वाथ रोगिणी। यदाः शुद्धा तदान्येन कारयत् प्रयता स्वयम् । इति पुंसोप्येष विधिः, लिङगस्याविवक्षितत्वात् । नि० सि० (पृ० २८)। Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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