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अध्याय ३०
धर्मशास्त्र से सम्बन्धित मीमांसासिद्धान्त एवं व्याख्या के नियम
वैदिक वाक्यों (वचनों, वक्तव्यों अथवा मूलपंक्तियों) की व्याख्या के लिए पूर्वमीमांसा ने अपनी एक विशिष्ट पद्धति एवं सिद्धान्तों का उद्भव किया है । अब हम उन सिद्धान्तों एवं नियमों का उल्लेख करेंगे, उनकी व्याख्या उपस्थित करेंगे और यह देखेंगे कि धर्मशास्त्र के लेखकों ने अपनी समस्याओं के समाधान के लिए किस प्रकार उनका प्रयोग किया है।
मीमांसा-सिद्धान्त और व्याख्या के नियम कई दलों में विभाजित हैं। कुछ ऐसे नियम हैं जो केवल वैदिक यज्ञों एवं उनके पारस्परिक सम्बन्धों के विस्तारों से सम्बन्धित हैं। इस क्षेत्र में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण नियम यह है कि केवल विधियाँ ही प्रामाणिक होती हैं और उन्हीं को मान्यता की शक्ति प्राप्त है, अर्थवाद वहीं तक प्रमाण हैं जहाँ वे विधियों के साथ एक पूर्ण वाक्य-रचना प्रदान करते हैं तथा विधियों की प्रशंसा में प्रयुक्त होते हैं (पू० मी० सू० ११२१७) । विधियाँ एवं अर्थवाद क्रमानुगत विवेचित नहीं हैं, प्रत्युत वे पू० मी० सू० के कतिपय अध्यायों में विकीर्ण हैं । उदाहरणार्थ, अर्थवादों का वर्णन प्रथमत: १।२।१-१८ (अर्थवादाधिकरण) में हुआ है, किन्तु बहुत-से अन्य स्थानों में उनके विषय में विवेचन हुआ है, यथा--३।४।१-६, ३।४।१०, ३।४।११, ४।३।१-३, ६।७।२६-२७, १०८१५, १०८७ एवं ८ में।
यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि मीमांसा का सम्बन्ध किसी राजा या किसी सार्वभौम लोकनीतिक सभा द्वारा स्थापित विधान से नहीं है। यह धर्म (अर्थात् धार्मिक कृत्य एवं उनसे सम्बन्धित विषय) का सम्यक् ज्ञान देने की बात करती है और ज्ञान की प्राप्ति का साधन स्वयं वेद है तथा मीमांसा का प्रमुख उद्देश्य है वैदिक यज्ञों की प्रक्रिया (इतिकर्तव्यता) तथा उसके कतिपय सहायक एवं मुख्य विषयों को व्यवस्थित करना।'
नियम-व्यवस्था की व्याख्या एवं व्याख्या के मीमांसा-नियमों के बीच बहत बड़ा अन्तर पाया जाता है। प्रथम बात यह है कि नियम तो मनुष्य-कृत होते हैं, वे नियामक या व्यवस्थापक की इच्छा को प्रकट करते हैं, उनके उद्देश्य अधिकांश में सांसारिक अथवा व्यावहारिक होते हैं, उनका सुधार हो सकता है या वे विलुप्त किये जा सकते हैं और अपने कर्ता के आशय के अनुसार व्याख्यायित हो सकते हैं। किन्तु मीमांसा का सम्बन्ध वेद
१. धर्म प्रमीयमाणे तु वेदेन कारणात्मना । इतिकर्तव्यतामागं मीमांसा पूरयिष्यति ॥ शास्त्रदीपिका पर युक्तिस्नेहप्रपूरणी (पृ० ३६, देवनाथ की अधिकरणकौमुदी (पृ० ३) एवं तन्त्ररहस्य द्वारा उद्धत। स्वयं पू० मो० सू० (३।३।११) में 'इतिकर्तव्यता' शब्द आया है (असंयुक्त प्रकरणादितिकर्तव्यतार्थित्वात्) । इसके पूर्ववर्ती सूत्र (भूयस्त्वेनोभयश्रुति) पर शबर ने टिप्पणी की है-'ये च भूयां सो गुणाः सेतिकर्तव्यता)' तथा पू० मी० सू० (११।२।८, अङगानि तु विधानत्वात्प्रधानेनोपदिश्यरंस्तस्मात्स्यादेकदेशत्वम्) पर शबर ने व्याख्या की है : 'विधानं कल्प इतिकर्तव्यतेत्यर्थः।'
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