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________________ पूर्वमीमांसा के कुछ मौलिक सिद्धान्त १३६ दिया हुआ है। किन्तु स्मृतिच० (२, पृ० २५७-५८), मदनरत्न (व्यवहार, पृ० ३२४-३२५) एवं व्यवहारप्रकाश (१० ४२०) ने न्यायविवेक से ऐसा ही वचन उद्धृत किया है। विश्वरूप (याज्ञ० २११४४) ने भी कहा है कि धन का प्राप्ति के विषय के नियम पुरुषार्थ है। धन एकत्र करना स्वाभाविक है। धन प्राप्ति शास्त्र पर नहीं निर्भर है। इसके अतिरिक्त, यह सभी को ज्ञात है कि धन जब कमाया जाता है तो वह प्राप्तकर्ता को सुख देता है। अत: धन पुरुषार्थ है और यज्ञ , जो धन द्वारा सम्पादित होते हैं वे भी पुरुषार्थ हैं। सामान्य नियम यह है कि सभी अंग (सहायक कृत्य) क्रत्वर्थ हैं और सभी प्रमुख कृत्य (यथा दर्शपूर्णमास, सोमयाग) पुरुषार्थ है; और वे सभी वचन, जो कृत्यों के फलों की व्यवस्था करते हैं, पुरुषार्थ हैं। कुछ उदाहरण दिये जा सकते हैं। शांखायनब्राह्मण (६।६) में ऐसा कहकर कि यजमान को कुछ व्रत करने चाहिए, ऐसी व्यवस्था की गयी है कि यजमान को सूर्योदय एवं सूर्यास्त नहीं देखना चाहिए । शबर ने इन व्रतों को 'प्रजापतिव्रतानि' कहा है और इन्हें पुरुषार्थ घोषित किया है, जिसका अर्थ यह है कि यजमान को सूर्योदय एवं सूर्यास्त न देखने का प्रण करना चाहिए। ऋत्वर्थ एवं पुरुषार्थ के अन्तर को धर्मशास्त्रीय रंग मिल चुका है। उदाहरणार्थ, य.ज्ञ० (१३५३) ने व्यवस्था दी है कि उस लड़की से विवाह करना चाहिए जो रोगरहित हो, भाई वाली हो और दूसरे गोत्र या प्रवर वाली हो। मिताक्षरा (याज्ञ० ११५३) ने व्याख्या की है कि यदि लड़की सपिण्ड हो या एक ही गोत्र या प्रवर वाली हो तो पत्नी होने की उसकी स्थिति की बात ही नहीं उठती १ (स्वयं विवाह ही अवैध होता है), किन्तु वह कन्या जो रोगग्रस्त होती है, विवाह हो जाने पर पत्नी हो जाती है, केवल एक ही फल यह होता है कि वह बीमार रहती है (जो दुःख एवं चिन्ता का कारण है) । कुल्लक (मनु० ३१७) ने शबर के इस सिद्धान्त की ओर संकेत किया है और कहा है कि उस कुटुम्ब की कन्या से विवाह नहीं करना चाहिए, जिसमें राजरोग (तपेदिक), अपस्मार (मिर्गो), चरक एवं कुष्ठ के समान रोग हों। मिताक्षरा (याज्ञ० ३।२।८०) ने एक उद्धरण दिया है'विज्ञ व्यक्ति को उस लड़की से विवाह नहीं करना चाहिए, जिसको भाई, पिता न हो, क्योंकि वह पुत्रिका (वह कन्या जो पुत्र रूप में नियुक्त होती है) हो सकती है। यहाँ पर निषेध वैसा ही है जो किसी विकलांग लड़की के साथ विवाह करने के विषय में होता है अर्थात् यह एक ज्ञात (प्रत्यक्ष) उद्देश्य है । अतः विवाह वैध होगा अर्थात् निषेध पुरुषार्थ है। मनु (१६८) में आया है-'वह दत्तक पुत्र है जिसे माता या पिता विपत्ति आदि की स्थितियों में जल के साथ देता है । मिताक्षरा ने याज्ञ० (२।१३०) की व्याख्या में इस श्लोक को उद्धृत कर कहा है कि यहाँ पर 'आपद्' (विपत्ति) शब्द विशिष्ट रूप से उल्लिखित है, जब 'आपद्' न हो तो किसी अन्य व्यक्ति को अपना पुत्र गोद के रूप में नहीं देना चाहिए; यह निषेध केवल देने वाले को प्रभावित करता है (न कि गोद लेने वाली क्रिया को), अर्थात् यह निषेध पुरुषार्थ है, ऋत्वर्थ नहीं । यह द्रष्टव्य है कि व्यवहारमयूख ने इसे २६. सपिण्डा-समानगोत्रा-समानप्रवरासु-भार्यात्वमेव नोत्पद्यते रोगिण्यादिषु तु भार्यात्वे उत्पन्नेऽपि दृष्टविरोध एव । मिता० (याज्ञ० ११५३); इसका आशय यह है कि सपिण्ड, सगोत्र या सप्रवर लड़की के विवाह के विरोध में जो व्यवस्था है वह ऋत्वर्थ है, किन्तु रोगग्रस्त लड़की के साथ विवाह करने की व्यवस्था केवल पुरुषार्थ है। ३०. आपद्ग्रहणादनापदि न देयः । दातुरयं प्रतिषेधः मिता० (याज्ञ० २।१३०); व्यवहारमयूख (पु०१०७) ने विरोध किया है : 'अयं निषेधो दातुरेव पुरुषार्थः, न ऋत्वर्थ इति विज्ञानेश्वरः । तन्न । अस्य वाक्याददृष्टार्थतया ऋत्वर्थावगमात् ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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