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________________ पूर्वमीमांसा के कुछ मौलिक सिद्धान्त १२५ पर लिखते हुए स्वर्ग सम्बन्धी दो प्रचलित मतों का उल्लेख किया है; एक है-वह स्वर्ग है जो व्यक्ति को आनन्द देता है, यथा रेशमी वस्त्र, चन्दन, षोडशियाँ ; दूसरा है-स्वर्ग वह है जहाँ न उष्णता है, न जाड़ा है, न भूख है, न प्यास है, न असन्तोष है और न थकावट है। शबर एवं कुमारिल का कथन है कि स्वर्गविषयक प्रचलित धारणा अप्रामाणिक है, महाभारत एवं पुराण मनुष्यकृत हैं, अत: उनकी बातें अविचारणीय हैं तथा स्वर्ग सम्बन्धी वैदिक निरूपण केवल प्रशंसा के लिए अर्थवाद है। पू० मी० सू० (४।३।१५) में आया है कि स्वर्ग सभी धार्मिक कृत्यों (यथा-विश्वजित) का फल है जिसके लिए वचनों द्वारा कोई स्पष्ट फल घोषित नहीं है। शबर का कथन है : 'सुख ही स्वर्ग है और उसे सभी खोजते हैं'। एक प्राचीन श्लोक में आया है-वह सुख-स्थिति जिसमें दुख न मिला हो, और जो आगे दुख से न ग्रसित होने वाला हो, जो अभिलाषा करने पर प्राप्त हो जाय, वही 'स्वर' (स्वर्ग) शब्द से संज्ञायित होता है।' मेधातिथि ने टिप्पणी की है कि स्मृतियाँ कभी-कभी घोषित करती हैं कि एक गाय के दान से सभी फलों की प्राप्ति होती है और पापों से छुटकारा मिल जाता है, इसका परिणाम यह हो जाता है कि महान् धार्मिक कृत्यों तथा हलके-फुलके कृत्यों के फल एक-से समझ लिये जाते हैं, किन्तु यह सोच लेना चाहिए कि फल अवधि को लेकर भिन्न-भिन्न होते हैं; नहीं तो कोई भी महान् एवं कठिन कृत्यों का सम्पादन नहीं करेगा। कुछ वैदिक कृत्यों से ऐसे फल प्राप्त होते हैं जो स्वर्ग से भिन्न होते हैं। उदाहरणार्थ, तै० सं० (२।४।६।१) में आया है-'जो अधिक पशुओं की कामना रखता है उसे चित्रा नामक यज्ञ करना चाहिए' या जो एक ग्राम का नेता बनना चाहता है उसे 'संग्रहणी' नामक इष्टि करनी चाहिए (तै० सं० २।३।६।२)। शबर का कथन है कि वेद ऐसा नहीं कहते कि इस प्रकार के यज्ञों से इस जीवन में फल नहीं प्राप्त हो सकता। इस पर टुप्टीका (पू० मी० सू० ६।१।१) ने एक सुन्दर टिप्पणी की है। अभिलषित वस्तुओं (पुत्र-जन्म आदि) की प्राप्ति के लिए वेद में जो उपाय घोषित है वह इस या उस लोक में अवश्य फलदायक होगा। यदि किसी व्यक्ति ने पूर्व ७. स स्वर्गः स्यात्सर्वान्प्रत्यविशिष्टत्वात् । पू० मी० सू० (४।३।१५); शबर का कथन है : 'सर्वे हि पुरुषाः स्वर्गकायाः कुत एतत् । प्रीतिहि स्वर्गः सर्वश्च प्रीति प्रार्थयते।' स्वर्ग साध्य है और याग साधन है जैसा कि पू० मी० सू० (६।२।४) को टुप्टीका में आया है। यन्न दुःखेन सम्भिन्नं न च प्रस्तमनन्तरम् । अभिलायोपनीतं च तत्सुखं स्वःपदास्पदम् ।। वाचस्पति की सांस्यकौमुदी (पृ० ४५, चौखम्भा सीरीज) द्वारा तथा उद्योगपर्व (३३।७२) पर नीलकण्ठ द्वारा उद्धृत । कुछ लोगों ने इस श्लोक को विष्णुपुराण का माना है। प्रकरणपञ्चिका (पृ०१०२-१०३) में इस श्लोक की ध्वनि प्राप्त होती है : 'ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामो यजेतत्यवमादि समाम्नायं सकलदुःखसम्भेदरहिताभिलाषोपनीतदीर्घतरसुखसाधनत्वेनार्थवादैः स्तूयमानं कर्म दृश्यते।... तथा च यावत्तावत्सुखसाधने स्वर्गशब्दं न प्रयुजते किन्तु सातिशयप्रीतिजनके । मेधातिथि (मनु ४८७ जहाँ नरकों की संख्या २१ कही गयी है) ने टिप्पणी दी है : 'नरकशब्दो निरतिशयदुःखवचनः । एकविंशति संख्या अर्थवादः। प्रकाशित विष्णुपुराण (२।६।४६) में आया है: 'मनः प्रीतिकरः स्वर्गो नरकस्तद्विपर्ययः । नरकस्वर्गसंज्ञे व पुण्यपापे द्विजोत्तम ॥ ८. स्मृत्यन्तर सर्वफलता पापप्रमोचनार्थतापि गोदानस्य श्रुता यावतामल्पोपकराणां महोपकारः फलसाम्यमुच्यते तेषां लोकवत्परिमाणतः फलविशेषोऽवगन्तव्यः। प्राप्यते तदेव फलं न तु चिरकालम् । आवाच्यो ह्ययं न्यायः। पणलभ्यं हि तत्प्रातः कीगाति बशभिः पलैः-इति समानफलत्वे महाप्रयासानर्थक्यं प्राप्नोति । मेषा० (मनु ३६५)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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