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________________ ६८ धर्मशास्त्र का इतिहास लेखक बादरायण के दृष्टिकोण से सहमत है, केवल १०1८।४४ में ही असहमति प्रकट की गयी है। पू० मी० सू० (१।११५) में बादरायण का मत वेदान्तसूत्र (१।३।२८-२६) में प्रकाशित मतों से मिलता है तथा पाँच स्थलों में चार स्थलों के मत यज्ञिय बातों से सम्बन्धित हैं, जिनके विषय में वेदान्तसूत्र में कुछ भी नहीं है। इससे प्रकट होता है कि विद्यमान पू० मी० स० के लेखक के समक्ष पूर्व मीमांसा-सम्बन्धी विषयों पर बादरायण द्वारा लिखित कोई ग्रन्थ था और यदि विद्यमान वेदान्तसूत्र के लेखक बादरायण होते तो उनके द्वारा लिखित एक पूर्वमीमांसासम्बन्धी ग्रन्थ भी रहा होता, अथवा एक अन्य बादरायण थे जिन्होंने केवल पूर्वमीमांसा पर ही लिखा था। पु० मी. सू० में जैमिनि के प्रति पाँच संकेतों की ओर पहले ही ध्यान आकृष्ट कर दिया गया है और उस सुत्र (६।३।४) की ओर भी संकेत किया जा च का है जिसके आधार पर प्रो० शास्त्री ने तीन जैमिनियों की बात उठा दी है, किन्तु हमने ऊपर इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि इस प्रकार के निष्कर्ष के लिए कोई पुष्ट भूमि नहीं है। एक अन्य विकल्प उपस्थित किया जा सकता है, यथा यह कहा जा सकता है कि विद्यमान वेदान्तसूत्र एवं पृ० मी० स० के समक्ष जैमिनि एवं बादरायण के ग्रन्थ थे ही नहीं, तथा जैमिनि एवं बादरायण के विषय में जो संकेत मिलते हैं वे जैमिनि एवं बादरायण की शाखाओं अथवा सम्प्रदायों में प्रचलित मतों से सम्बन्धित हैं। किन्तु यह अनुमान सम्भव नहीं जचता। विद्यमान वेदान्तसूत्र एवं पू० मी० सू० आर्यावर्त में सभी के लिए मान्य थे और यहाँ ऐसा नहीं लगता कि दोनों सम्प्रदायों की मौखिक परम्पराएँ सम्पूर्ण देश में सभी लोगों को ज्ञात होनी ही चाहिए थीं। बहुत-सी बातों में जहाँ बादरायण का उल्लेख हुआ है, वहाँ वे० सू० में बहुत-सी व्याख्याएँ जोड़ी गयी हैं और अन्य बातों का समावेश हुआ है। यह कहा जा चुका है कि शंकराचार्य, भास्कर एवं यामन मुनि ने वे० स० को बादरायण लिखित माना है तथा वाचस्पति आदि ने उसे ब्यास पाराशर्य वृत माना है। ६ वीं शती के उपरान्त वेदव्यास को बादरायण क्यों कहा जाने लगा, यह कहना कठिन है। कुछ अन्य सम्बन्धित बातों का उल्लेख भी आवश्यक है। गीता में क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ के विषय में एक इलोक एक समस्या खड़ी कर देता है। '२ गीता (१३। १२. ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिविविधैः पृथक् । ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिविनिश्चितः ॥ गीता १३।४। प्रथम अर्धाली वेदों एवं उपनिषदों के वचनों की ओर संकेत करती है तथा दूसरी ब्रह्मसूत्रपदों की ओर । सभी टीकाकारों के अनुसार 'ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव' का सम्बन्ध 'गीतं' से अवश्य होना चाहिए। प्रस्तुत लेखक का कथन है कि 'ऋषिभिः' को 'छन्दोभिः' से सम्बन्धित रखना आवश्यक है, तो इसमें कोई तर्क नहीं है कि वह 'ब्रह्मसत्रपदः' से भी क्यों न सम्बन्धित माना जाय।' प्रथम अर्धाली में दो शब्द करण कारक में हैं, यथा 'ऋषिभिः' एवं 'छन्दोभिः' । यदि हम 'ऋषिभिः' को दूसरी अर्धाली में माने तो हमें 'ऋषिभिः' एवं 'ब्रह्मसूत्रपदैः' को उसी भांति रखा हुआ मानना पड़ेगा। प्रथम अर्धाली में वेदों एवं उपनिषदों के वचनों तथा दूसरी अर्धाली के तर्कयुक्त एवं सुनिश्चित वचनों में विरोध भी व्यक्त है। तब तो अर्थ होगा कि ऋषियों ने कई ब्रह्मसूत्रों का प्रणयन किया था। प्रस्तुत लेखक का मत है कि गीता ने अपने समय के कई ब्रह्मसूत्रों की ओर संकेत किया है न कि वेदान्तसूत्र की ओर। यहाँ शंकराचार्य के अतिरिक्त अन्य टीकाकार 'ब्रह्मसूत्र' शब्द से अपने कालों में प्रचलित ग्रन्थों की ओर संकेत करते हैं। लोकमान्य तिलक ने गीतारहस्य (परिशिष्ट भाग-३, १६१५ का संस्करण) में गीता एवं ब्रह्मसूत्र के सम्बन्ध पर विवेचन उपस्थित किया है और अपनी एक तर्कना उपस्थित की है कि उस लेखक ने जिसने For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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