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जन्माष्टमी और जयन्ती व्रत
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भविष्योत्तर ० (४४।१-६९) में कृष्ण द्वारा कृष्णजन्माष्टमी व्रत के बारे में युधिष्ठिर से स्वयं कहलाया गया है -- मैं वसुदेव एवं देवकी से भाद्र कृष्ण अष्टमी को उत्पन्न हुआ था, जब कि सूर्य सिंह राशि में था, चन्द्र वृषभ था और नक्षत्र रोहिणी था ( ७४-७५ श्लोक ) । जब श्रावण के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र होता है तो वह तिथि जयन्ती कहलाती है, उस दिन उपवास करने से सभी पाप जो बचपन, युवावस्था, वृद्धावस्था एवं बहुत-से पूर्वजन्मों में हुए रहते हैं, कट जाते हैं। इसका फल यह है कि यदि श्रावण कृष्णपक्ष की अष्टमी को रोहिणी हो तो न यह केवल जन्माष्टमी होती है, किन्तु जब श्रावण की कृष्णाष्टमी से रोहिणी संयुक्त हो जाती है तो जयन्ती होती है । अब प्रश्न यह है कि 'जन्माष्टमी व्रत' एवं 'जयन्ती व्रत' एक ही हैं या ये दो पृथक् व्रत हैं । कालनिर्णय ( पृ० २०९) ने दोनों को पृथक् व्रत माना है, क्योंकि दो पृथक् नाम आये हैं, दोनों के निमित्त ( अवसर ) पृथक् हैं ( प्रथम कृष्णपक्ष की अष्टमी है और दूसरी रोहणी से संयुक्त कृष्णपक्ष की अष्टमी ), दोनों की विशेषताएँ पृथक् हैं, क्योंकि जन्माष्टमी व्रत में शास्त्र ने उपवास की व्यवस्था दी है और जयन्ती व्रत में उपवास, दान आदि की व्यवस्था है। इसके अतिरिक्त जन्माष्टमी व्रत नित्य है क्योंकि इसके न करने से केवल पाप लगने की बात कही गयी है) और जयन्ती व्रत नित्य एवं काम्य दोनों है, क्योंकि उसमें इसके न करने से न केवल पाप की व्यवस्था है प्रत्युत करने से फल प्राप्ति की बात भी कही गयी है। एक ही श्लोक में दोनों के पृथक् उल्लेख भी हैं। हेमाद्रि, मदनरत्न, निर्णयसिन्धु आदि ने दोनों को भिन्न माना है । नि० सि० ( पृ० १२६) ने यह भी लिखा है कि इस काल में लोग जन्माष्टमी व्रत करते हैं न कि जयन्ती व्रत । किन्तु जयन्तीनिर्णय ( पृ० २५) का कथन है कि लोग जयन्ती मनाते हैं न कि जन्माष्टमी । सम्भवतः यह भेद उत्तर एवं दक्षिण भारत का है ।
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वराहपुराण एवं हरिवंश में दो विरोधी बातें हैं । प्रथम के अनुसार कृष्ण का जन्म आषाढ़ शुक्ल द्वादशी को हुआ था। हरिवंश के अनुसार कृष्ण जन्म के समय अभिजित् नक्षत्र था और विजय मुहूर्त था । सम्भवत: इन उक्तियों में प्राचीन परम्पराओं की छाप है ।
मध्यकालिक निबन्धों में जन्माष्टमी व्रत के सम्पादन की तिथि एवं काल के विषय में भी विवेचन पाय है (देखिए कान०, पृ० २१५ - २२४ ) ; कृत्यतत्त्व, पृ० ४३८ - ४४४; तिथितत्त्व, पृ० ४७-५१ । समय मयूख (५०-५१ ) एवं नि० सि० ( पृ० १२८ - १३० ) में इस विषय में निष्कर्ष दिये गये हैं ।
सभी पुराणों एवं जन्माष्टमी -सम्बन्धी ग्रन्थों से स्पष्ट होता है कि कृष्णजन्म के सम्पादन का प्रमुख समय है श्रावण कृष्णपक्ष की अष्टमी की अर्धरात्रि ( यदि पूर्णिमान्त होता है तो भाद्रपद मास में किया जाता है) । यह तिथि दो प्रकार की है- (१) बिना रोहिणी नक्षत्र की तथा (२) रोहिणी नक्षत्र वाली । निर्णयामृत ( पृ०५६-५८) में १८ प्रकार हैं, जिनमें ८ शुद्धा तिथियाँ, ८ विद्धा तथा अन्य २ हैं (जिनमें एक अर्धरात्रि में रोहिणी नक्षत्र वाली तथा दूसरी रोहिणी से युक्त नवमी, बुध या मंगल को ) । यहाँ पर विभिन्न मतों के विवेचन में हम नहीं पड़ेंगे। केवल तिथितत्त्व ( पृ० ५४ ) से संक्षिप्त निर्णय दिये जा रहे हैं - यदि जयन्ती ( रोहिणीयुक्त अष्टमी ) एक दिन वाली है, तो उसी दिन उपवास करना चाहिए, यदि जयन्ती न हो तो उपवास रोहिणी युक्त अष्टमी को होना चाहिए, यदि रोहिणी से युक्त दो दिन हों तो उपवास दूसरे दिन किया जाता है, यदि रोहिणी नक्षत्र न हो तो उपवास अर्धरात्रि में
स्थित अष्टमी को होना चाहिए या यदि अष्टमी अर्धरात्रि में दो दिनों वाली हो या यदि वह अर्धरात्रि में न हो तो उपवास दूसरे दिन किया जाना चाहिए ।
यदि जयन्ती बुध या मंगल को हो तो उपवास महापुण्यकारी होता है और करोड़ों व्रतों से श्रेष्ठ माना जाता है और जो व्यक्ति बुध या मंगल से युक्त जयन्ती पर उपवास करता है वह जन्म-मरण से सदा के लिए छुटकारा पा लेता है।
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