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जातिप्रथा एवं धर्मशास्त्र में निर्दिष्ट जीवन-पद्धति पर डाल देते हैं, किन्तु इस विचार से सर्वथा सहमत होना बड़ा कठिन है। अतः मैंने यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि विश्व के पूरे जनसमुदाय का स्वभाव साधारणतः एक जैसा है और उसमें निहित सुप्रवृत्तियाँ एवं दुष्प्रवृत्तियाँ सभी देशों में एक सी ही हैं। किसी भी स्थान विशेष में आरम्भ कालिक आचार पूर्ण लाभप्रद रहते हैं, फिर आगे चलकर सम्प्रदायों में उनके दुरुपयोग एवं विकृतियाँ समान रूप से स्थान ग्रहण कर लेती हैं। चाहे कोई देश विशेष हो या समाज, वे किसी न किसी रूप में जातिप्रथा या उससे भिन्न प्रथा से आबद्ध रहते आये हैं।
संस्कृत ग्रन्थों से लिये गये उद्धरणों के सम्बन्ध में दो शब्द कह देना आवश्यक है। ये उद्धरण इस पुस्तक में दिये गये तर्कों की भावनाओं को समझने में एक सीमा तक सहायक होंगे। साथ ही, भारतवर्ष में इनके लिए अपेक्षित पुस्तकों को सुलभ करने वाले पुस्तकालयों या साधनों का भी अभाव है। उपर्युक्त कारणों से सहस्रों उद्धरण पादटिप्पणियों में उल्लिखित हुए हैं। अधिकांश उद्धरण प्रकाशित पुस्तकों से एवं बहुत थोड़े से अवतरण
ज्यों और तार-लेखों से उदत ए हैं। शिलालेखों. ताम्रपत्रों के अभिलेखों या अवतरणों के सम्बन्ध में भी उसी प्रकार का संकेत अभिप्रेत है। इन तथ्यों से एक बात और प्रमाणित होती है कि धर्मशास्त्र में निहित
ई हजार वर्षों से जनसमदाय द्वारा आचरित हई हैं तथा शासकों द्वारा विधि के रूप में स्वीकृत हई
यह निश्चित होता है कि ऐसे नियम पंडितम्मन्य विद्वानों या कल्पनाशास्त्रियों द्वारा संकलित काल्पनिक नियम मात्र नहीं रहे हैं। वे व्यवहार्य होते रहे हैं। जिन पुस्तकों के मुझे लगातार उद्धरण देने पड़े हैं और जिनसे मैं पर्याप्त लामान्वित हुआ है, उनमें से कुछ ग्रंथों का उल्लेख आवश्यक है। यथा-ब्रमफील्ड की 'वैदिक अनुक्रमणिका', प्रोफेसर मैकडानल और कीथ की 'वैदिक अनुक्रमणिकाएँ', मैक्समूलर द्वारा सम्पादित 'प्राच्य धर्म पुस्तकें।'
- इसके अतिरिक्त मैं असाधारण विद्वान् डा० जाली का स्मरण करता हूँ जिनकी पुस्तक को मैंने अपने सामने आदर्श के रूप से रखा है। मैंने निम्नलिखित प्रमुख पंडितों की कृतियों से भी बहुमूल्य सहायता प्राप्त की है, जो इस क्षेत्र में मुझसे पहले कार्य कर चुके हैं, जैसे डा० बुहलर, राव साहब बी० एन० मंडलीक, प्रोफेसर हापकिन्स, श्री एम० एम० चक्रवर्ती तथा श्री के. पी. ज़ायसवाल। मैं 'वाई' के परमहंस केवलानन्द स्वामी के सतत साहाह्य और निर्देश (विशेषतः श्रौत भाग) के लिए, पूना के चिन्तामणि दातार द्वारा दर्श-पौर्णमास के परामर्श और श्रौत के अन्य अध्यायों के प्रति सतर्क करने के लिए, श्री केशव लक्ष्मण ओगले द्वारा अनुक्रमणिका भाग पर कार्य करने के लिए और तर्कतीर्थ रघुनाथ शास्त्री कोकजे द्वारा सम्पूर्ण पुस्तक को पढ़कर सुझाव और संशोधन देने के लिए असाधारण आभार मानता हूँ। मैं इंडिया आफिस पुस्तकालय (लंदन) के अधिकारियों का और डा० एस० के० वेल्वेल्कर, महामहोपाध्याय प्रोफेसर कुप्पुस्वामी शास्त्री, प्रोफेसर रंगस्वामी आयंगर, प्रोफेसर पी० पी० एन० शास्त्री, डा० भवतोष भट्टाचार्य, डा० आल्सडोर्फ, प्रोफेसर एच० डी० बेलणकर, विल्सन कालेज बम्बई आदि का बहुत ही कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने मुझे अपने अधिकार में सुरक्षित संस्कृत की पाण्डुलिपियों के बहुमूल्य संकलनों के अवलोकन की हर संभव सुविधाएँ प्रदान की। विभिन्न प्रकार के निदेशन में सहायता देने के लिए मैं अपने मित्र समुदाय तथा डा० बी० जी० परांजपे, डा० एस० के० दे, श्री पी० के० गोड़े और श्री जी० एन० वैद्य का [एवं प्रस्तुत हिन्दी संस्करण के सम्पादन में सूझ-बूझ के साथ संशोधनार्थ सतर्क रहने के लिए श्री चिरंजीव शर्मा शास्त्री का प्रका'] आभार मानता हूँ। हर प्रकार की सहायता के बावजूद इस पुस्तक में होने वाली न्यूनताओं, व्युतियों और उप्रेक्षाओं से मैं पूर्ण परिचित हूँ। अतः इन सब कमियों के प्रति कृपालु होने के लिए मैं बिद्वानों से प्रार्थना करता हूँ।
--पाण्डुरंग वामन काणे
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