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धर्मशास्त्र का इतिहास इन्क्वीजिशनों (धार्मिक अत्याचारों) एवं यूरोप के मठीय विधानों से करनी चाहिए जो १० वीं शती से लेकर १५ वीं शती तक प्रचलित थे। तुलना करने से पता चलेगा कि यूरोप की परिस्थितियाँ उन शतियों में भारतीय परिस्थिति से कई गुनी भयंकर एवं हीन थीं। १
उपर्युक्त सिद्धान्तों के फलस्वरूप पुराणों ने बड़े बल के साथ दानों (विशेषत: भोजन का दान), पवित्र स्थानों के जलों में स्नान एवं तीर्थ-यात्राओं, व्रतों, अहिंसा, भक्ति, देवनाम-जप, श्राद्ध आदि की व्यवस्थाएँ की हैं। इन पर हम संक्षेप में यहाँ वर्णन करेंगे।
पुराणों ने पवित्र वैदिक यज्ञों तथा तीर्थयात्राओं एवं स्नानों में तुलना स्थापित की है। वनपर्व (८२११७ आदि) में आया है--"मुनियों द्वारा प्रवर्तित पूत यज्ञ दरिद्र व्यक्ति द्वारा सम्पादित नहीं हो सकते ; यज्ञों में बहुत-से उपकरणों, भाँति-भाँति के सामानों की आवश्यकता होती है जिन्हें केवल राजा या धनिक व्यक्ति ही सँजो सकते हैं, दरिद्र व्यक्तियों का कोई अन्य सहारा नहीं है, उन्हें अपने पर ही निर्भर रहना पड़ता है। तीर्थ स्थानों में जाने से पुण्य मिलता है और यह यज्ञों के सम्पादन से अपेक्षाकृत विशिष्ट है। जो पुण्य तीर्थ स्थानों में जाने से प्राप्त होता है वह अग्निष्टोम जैसे यज्ञों से, जिनमें प्रभूत दक्षिणा-दान किया जाता है, नहीं प्राप्त होता।"
अनुशासनपर्व एवं पुराणों ने व्रतों एवं उपवासों की महत्ता इसी महान् सिद्धान्त के आधार पर की है। अनुशासनपर्व (१०७१५-६) में आया है कि पुण्य के मामले में उपवास यज्ञों के बराबर हैं। पद्मपुराण (३॥२१॥ २९) में उपवास यज्ञों से श्रेष्ठ गिने गये हैं, ऐसा आया है--'विष्णुव्रत श्रेष्ठ होता है; एक सौ वैदिक यज्ञ इसके बराबर नहीं हो सकते। एक यज्ञ करके व्यक्ति स्वर्ग प्राप्त कर सकता है, किन्तु जो कार्तिकव्रत करता है, वह वैकुण्ठ (विष्णु-लोक) जाता है।"
दान सर्वप्रथम हम दान को लेते हैं। ऋग्वेदिक काल से ही दानों की प्रशस्तियाँ गायी जाती रही हैं। हमने इस
३३. यूरोप के प्रत्येक देश में, विशेषतः स्पेन में इन्क्वीजिशन-सम्बन्धी असभ्य व्यवहारों एवं अत्याचारों के विषय में देखिए उब्लू० एच० रूल का ग्रन्थ 'हिस्ट्री आव इन्क्वीजिशन', १८६८ (विशेषतः पु० २९८-३१४ जहाँ 'गोवा में किये गये इन्क्वीजिशन' की चर्चा है), राफेल सबटिनी का ग्रन्थ 'टाक्वेमेड़ा एण दि स्पेनिश इन्क्वीजिशन' (आठवां संस्करण, १९३७), 'वि स्पेनिश इन्क्वीजिशन' (प्रो० ए० एस० टरबविले, होम यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी, १९३२ धारा लिखित) जहाँ पृष्ठ २३५ पर लेखक महोदय दुःखित हो कहते हैं कि स्पेन में पवित्र कार्यालय (होली आफिस) द्वारा भयंकर नाश के दृश्य उपस्थित किये गये । और देखिए कैम्ब्रिज मेडिएवल हिस्ट्री (जिल्द ६, अध्याय २०) का अध्याय 'हेरेसीज एण्ड दि इन्क्वीजिशन दि मिडिल एजेज' (१९२९, १० ६९९-७२६) तथा वही, जिल्द ६, पृ० ६९४-६९५ जहाँ यह प्रदर्शित है कि 'इंडल्जेसेज़ (अर्थात् पापों के लिए क्षमा-प्रदान एवं स्वर्ग में प्रवेश के सर्टिफिकेट) नियमानुकूल लाइसेंसधारी व्यापारियों द्वारा बेचे जाते थे और यह व्यवस्था ईसाई चर्च के उच्च मन्त्रियों द्वारा की गयी थी, किसी को अपराध-स्वीकरण एवं प्रायश्चित्त करने की आवश्यकता नहीं थी!! . ___३४ इदमंगिरसा प्रोक्तमुपवासफलात्मकम् । विधि यज्ञफलस्तुल्यं सन्निबोध युधिष्ठिर ॥ अनु० (१०७।५-६)। श्रेष्ठं विष्णुव्रतं विप्र तत्तुल्या न शतं मखाः । कृत्वा ऋतुं व्रजेत्स्वर्ग वैकुण्ठं कार्तिकप्रती ॥ पन (३।२।२९)। यही बात पद्म (६३९६१२५) में भी दुहरायी गयी है।
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