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व्रत द्वारा इच्छित वस्तु लाभ, व्रतों का श्रेणी-विभाजन, व्रत-सम्बन्धी साहित्य उपरान्त सूर्यव्रतों, शिवव्रतों, विष्णुव्रतों आदि की व्याख्या उपस्थित करता है। कुछ व्रत न केवल किन्हीं निश्चित तिथियों में ही किये जाते हैं, प्रत्युत उनके लिए किसी निश्चित मास, सप्ताह या नक्षत्र या इनमें से सभी का होना आवश्यक माना जाता है। एक अन्य व्रत-विभाजन कर्ताओं की व्रत-योग्यता पर निर्भर है। व्रतों का अधिकांश सभी पुरुषों एवं नारियों के लिए होता है। कुछ तो, यथा हरितालिका एवं वटसावित्री केवल नारियों के लिए हैं, कुछ केवल पुरुषों के लिए होते हैं और कुछ तो ऐसे हैं जो केवल राजाओं या क्षत्रियों या वैश्यों के लिए हैं।
___ व्रतों का साहित्य विशाल है। सम्भवतः तीर्थयात्रा एवं श्राद्ध के विषयों के अतिरिक्त पुराणों ने किसी अन्य विषय पर उतना नहीं लिखा है जितना व्रतों पर। कुछ पुराणों में तो व्रतों पर सहस्रों श्लोक रचे गये हैं, यथा भविष्य के ब्राह्मपर्व में ७५०० श्लोक, उत्तरखण्ड में ५००० श्लोकों से अधिक हैं, मत्स्य० में १२३० श्लोक, वराह में ७०० एवं विष्णुधर्मोत्तर में १६००। गणना की जाने पर पता चला है कि पुराणों में व्रतों पर लगभग २४००० श्लोक हैं। व्रतों एवं उत्सवों के बीच विभाजन-रेखा खींचना दुस्तर है। बहुत-से उत्सवों में धार्मिक तत्त्वों का समावेश है और उसी प्रकार बहुत-से व्रतों में उत्सवों की गन्ध मिल जाती है। इस ग्रन्थ में कुछ ऐसे व्रतों का उल्लेख मिलेगा जिन्हें लोग सर्वथा उत्सव कह सकेंगे।
व्रतों की विषय-सामग्री काल एवं तिथि के विवेचन से परिपूर्ण है। व्रतों पर बहुत-से निबन्ध एवं टीकाएँ पायी जाती हैं। इस विभाग में हम केवल व्रतों या उनके साथ तिथियों से सम्बन्धित ग्रन्थों की तालिका देंगे, काल एवं सामान्य महतॊ वाले ग्रन्थों की चर्चा नहीं होगी। किन्तु ऐसा करने पर भी उलट-फेर का हो जाना तथा एक-दूसरे का समावेश हो जाना सम्भव है। जीमूतवाहन के कालविवेक के एक श्लोक में सात पूर्ववर्ती लेखकों के नाम आये हैं जिन्होंने धामिक कृत्यों के सम्बन्ध में काल का विवेचन किया है, यथा--जितेन्द्रिय, शंखधर, अन्धक, सम्भ्रम, हरिवंश एवं योग्लोक। ये लेखक ११वीं शताब्दी के अर्ध भाग के पूर्व हुए होंगे। किन्तु इन लेखकों में समी के ग्रन्थ अभी उपलब्ध नहीं हो सके हैं। धारा के राजा भोज के दो ग्रन्थों में व्रतों के साथ काल का भी वर्णन है। इनमें से एक ग्रन्थ का नाम है राजमार्तण्ड, जो अभी अप्रकाशित है, किन्तु इसके बहुत-से श्लोक यत्र-तत्र उद्धृत हैं। राजमार्तण्ड व्रत-सम्बन्धी चर्चा का सबसे प्राचीन निबन्ध है। दूसरे ग्रन्थ का नाम है भूपालसमुच्चय या भूपालकृत्यसमुच्चय या व्रतों, दानों आदि पर कृत्यसमुच्चय। यह ग्रन्थ अनुपलब्ध है, किन्तु इसके उद्धरण निबन्धों में पाये जाते हैं।
वैदिक साहित्य, सूत्रों, रामायण, महाभारत, पुराणों एवं राजमार्तण्ड के अतिरिक्त निम्न ग्रन्थों में वर्णित व्रतों का उल्लेख इस महाग्रन्थ में हुआ है-लक्ष्मीधर का कृत्यकल्पतरु; जीमूतवाहन का कालविवेक; हेमाद्रि की चतुर्वर्गचिन्तामणि (व्रत-सम्बन्धी); श्रीदत्त का समयप्रदीप (पाण्डुलिपि); चण्डेश्वर का कृत्यरत्नाकर; आदित्यसूरि का कालादर्श (पाण्डुलिपि); माधव का कालनिर्णय या कालमाधव एवं कालनिर्णयकारिका; शूलपाणि के तिथिविवेक, व्रतकालविवेक एवं दुर्गोत्सवविवेक ; अल्लाडनाथ का निर्णयामृत'; गोविन्दानन्द की वर्षक्रियाकौमुदी; गदाधर का कालसार; रघुनन्दन के तिथितत्त्व, एकादशीतत्त्व, जन्माष्टमीतत्त्व, दुर्गार्चनपद्धति, कृत्यतत्त्व एवं व्रततत्त्व; मित्रमिश्र का व्रतप्रकाश (वीरमित्रोदय का एक भाग) एवं समयप्रकाश (वीरमित्रोदय का एक भाग); नीलकण्ठ का समयममूख या कालमयूख ; शंकरभट्ट का व्रतार्क (पाण्डुलिपि); दिवाकर का तिथ्यर्क ; हारीत वेंकटनाथ का दर्शनिर्णय ; शंकरभट्ट धारे की व्रतोद्यापनकौमुदी; विश्वनाथ का व्रतराज; विष्णुभट्ट की पुरुषार्थचिन्तामणि ; अहल्याकामधेनु (पाण्डुलिपि); काशीनाथ का धर्मसिन्धु। इनमें व्रतों के लिए अत्यधिक महत्त्व के ग्रन्थ ये हैं-- कृत्यकल्पतरु (जिससे हेमाद्रि एवं कृत्यरत्नाकर ने उद्धरण लिये हैं), हेमाद्रि (व्रत), माधव का काल-निर्णय कृत्यरत्नाकर, वर्षक्रियाकौमुदी, रघुनन्दन के ग्रन्थ एवं निर्णयसिन्धु। व्रतार्क एवं व्रतराज जैसे ग्रन्थ विशाल ग्रन्थ
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