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________________ तीर्थसूची १५०३ गिरनार एवं इसके आस-पास की भूमि पर) स्कन्द० शिखर जिसके पूर्व ओर कालोदक झील है और जो ७।२।३।२ एवं ७।२।१०।२०९। स्वयं उत्तर मानस के पास है। देखिए ह. चि. स्वर्णलोमापनयन-पम० १।२६।५८। ४।८७-८८ एवं विक्रमांकदेवचरित १८.५५। अलस्वामितीर्थ-मत्स्य० २२।६३, कूर्म० २।३७।१९-२१ ।। बरूनी (जिल्द १, पृ० २०७) का कहना है कि झेलम (यहाँ स्कन्द सदैव उपस्थित रहते हैं)। दे (पृ० हरमकोट पर्वत से निकलती है जहाँ से गगा भी १०७) ने इसे कौंच पर्वत पर स्थित तिरुत्तनी से एक निकलती है। देखिए राज० (३।४४८) पर स्टीन मील दूर स्थित कुमारस्वामी का मन्दिर कहा है। की टिप्पणी। स्वर्णबिन्दु--(नदी) वायु० ७७।९५, कूर्म ० २।३७।३७। हरमण्ड--(कश्मीर के पास एक तीर्थ) नीलमत० स्वलिङ्गेश्वर-(वारा० के अन्तर्गत) लिंग० १।९२।७८, १४५५ । स्कन्द० ४।३३।१२३ (इसके नाम की व्याख्या की हरिद्वार-(इसे गंगाद्वार एवं मायापुरी भी कहते हैं) गयी है)। यह उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में गंगा के स्वस्तिपुर- (गंगाह्रद एवं गगाकूप के पास) वन० दाहिने किनारे है। यह सात पवित्र नगरियों में ८३११७४। परिगणित होता है। पद्म० ४।१७।६६, ६।२१।१, ६।२२।१८, ६।१३५।३७ (माण्डव्य ने यहाँ तप किया)। देखिए 'बील' का लेख, बी० आर० डब्लू० हंसकुण्ड--(द्वारका के अन्तर्गत) वराह० १४९।४६। डब्लू०, जिल्द १, पृ० १९७, जहाँ ह्वेनसांग का वचन हंसतीर्थ--(१) (गया के अन्तर्गत) अग्नि० ११६॥ है कि पांच भारतों के लोग इसे गंगा का द्वार कहते ३०, नारद० २।४७।३०: (२) (नर्मदा के हैं और सहस्रों व्यक्ति स्नान करने के लिए एकत्र अन्तर्गत) मत्स्य० १९३।७२; (३) (शालग्राम होते हैं। कनिंघम (ऐ० जि०, पृ० ३५२) का यह के अन्तर्गत उसके पूर्व) वराह० १४४११५२-१५५ कथन कि हरिद्वार तुलनात्मक दृष्टि से आवनिक (नाम की व्याख्या की गयी है), देखिए 'यज्ञतीर्थ'। नाम है, क्योंकि अलबरूनी ने इसे केवल गंगाद्वार हंसद्वार--(कश्मीर के पास) नीलमत० १४६४। कहा है, यक्तिसंगत नहीं जंचता, क्योंकि स्कन्द० (४) हंसपद-(विशाखयूप के पास) वाम० ८१।१०। एवं पद्म० (४) ने 'हरिद्वार' शब्द का उल्लेख किया हंसप्रपतन--(प्रयाग के अन्तर्गत) वन० ८५।८७, है और यह नहीं कहा जा सकता कि ये अलबरूनी मत्स्य० १०६।३२ (गंगा के पूर्व एवं प्रतिष्ठान के (१०३० ई.) के पश्चात् लिखे गये हैं। सम्भवतः उत्तर), कूर्म० ११३७।२४, पद्म० १।३९।४०, अग्नि० ११वीं शताब्दी में हरिद्वार की अपेक्षा गंगाद्वार अधिक १११।१०। प्रचलित था। अलबरूनी (जिल्द १, पृ० १९९) हनुमत्तीर्य- (गोदावरी के अन्तर्गत) इसके उत्तरी का कहना है कि गंगा का उद्गम गंगाद्वार कहा तट पर) ब्रह्म० १२९।१ । जाता है। हयतीर्ष--मत्स्य० २२।६९ । हरिकेश्वर--(वारा० के अन्तर्गत) लिंग० (ती० हयमुक्ति-(मथुरा के अन्तर्गत) वराह० १६०।२३। क०, पृ० ११३) । हयसिर--(श्राद्ध के योग्य स्थल) ब्रह्माण्ड ० ३।१३।४६, हरिकेशेश्वर-(वारा० के अन्तर्गत) ती० क०, पृ० वायु० ७७४६। ८४ (सम्भवतः यह ऊपर वाला ही है)। हरमकुट--(कश्मीर की प्रचलित भाषा में हरमुख) हरिश्चन्द्र--(१) (वारा० के अन्तर्गत एक तीर्थ) नीलमत० १३२०, १३२२, १२३१; हिमालय का मत्स्य ० २२।५२ (श्राद्ध के लिए उपयुक्त स्थान) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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