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________________ १४४४ धर्मशास्त्र का इतिहास है कि एक दुष्ट केतु उत्तर में देविका को भी मार द्वारका-- -(१) वैदिक साहित्य में इस तीर्थ का नाम नहीं डालेगा। पार्जिटर (मार्क० का अनुवाद, पृ०२९२) ने इसे पंजाब की दीग या देव नदी माना है और डा० वी० एस० अग्रवाल ने इसे कश्मीर में वुलर झील माना है ( जे० यू० पी० एच्० एस्०, जिल्द १६, पृ० २१-२२) । जगन्नाथ ( वही, जिल्द १७, भाग २, पृ० ७८) ने पाजिटर का मत मान लिया है, जो ठीक जँचता है | देविकाट - - ( यहाँ देवी नन्दिनी कही गयी है) मत्स्य० १३।२८ । आता, किन्तु इसके विषय में महाभारत एवं पुराणों में बहुत कुछ कहा गया है। यह सात पुनीत नगरियों में है । ऐसा प्रतीत होता है कि दो द्वारकाएँ थीं, जिनमें एक अपेक्षाकृत अधिक प्राचीन है। प्राचीन द्वारका कोडिनर के पास थी । सोमात एवं सिंगात्र नदियों के मुखों के बीच समुद्र तट पर जो छोटा दूह है और जो कोडिनर से लगभग तीन मील दूर है, वह एक मन्दिर के भग्नावशेष से घिरा हुआ है। इसे हिन्दू लोग मूल द्वारका कहते हैं जहाँ पर कृष्ण रहते थे, और यहीं से वे ओखामण्डल की द्वारका में गये। देखिए बम्बई गजे ० (जिल्द ८, पृ० ५१८-५२० ) । जरासन्ध के लगातार आक्रमणों से विवश होकर कृष्ण ने इसे बसाया था । इसका उद्यान रैवतक एवं पहाड़ी गोमन्त थी । यह लम्बाई में दो योजन एवं चौड़ाई में एक योजन थी । देखिए सभा० (१४१४९-५५ ) । वराह० ( १४९।७८) ने इसे १० योजन लम्बी एवं ५ योजन चौड़ी नगरी कहा है। ब्रह्म० (१४/५४-५६ ) में आया है कि वृष्णियों एवं अन्धकों ने कालयवन के डर से मथुरा छोड़ दी और कृष्ण की सहमति लेकर कुशस्थली चले ये और द्वारका का निर्माण किया (विष्णु ० ५।२३।१३१५) । ब्रह्म० (१९६।१३-१५ ) में आया है कि कृष्ण ने समुद्र से १२ योजन भूमि माँगी, वाटिकाओं, भवनों एवं दृढ़ दीवारों के साथ द्वारका का निर्माण किया और वहाँ मथुरावासियों को बसाया। जब कृष्ण का देहावसान गया तो नगर को समुद्र ने डुबा दिया और उसे बहा डाला, जिसका उल्लेख भविष्यवाणी के रूप मौसलपर्व (६।२३-२४, ७१४१-४२), ब्रह्म० (२१०/ ५५ एवं २१२।९) में हुआ है। देखिए विष्णु ० ५। ३८।९ (कृष्ण के प्रासाद को छोड़कर सम्पूर्ण द्वारका बह गयी ) एवं भविष्य० ४।१२९।४४ ( रुक्मिणी के भवन को छोड़कर) | यह आनर्त की राजधानी कही गयी है। ( उद्योग ० ७।६) और सर्वप्रथम यह कुशस्थली के नाम से विख्यात थी ( सभा० १४|५० ) । देखिए मत्स्य ० ६९।९, पद्म० ५।२३।१०, ब्रह्म० ७।२९-३२ एवं देवीपीठ -- कालिकापुराण (६४।८९-९१ ) में आठ पीठों की गणना हुई है। देवीकूट -- कालिका० १८।४१, जहाँ पर सती के शव के चरण गिर पड़े थे । देवीस्थान --- देवीभागवत ( ७ । ३८।५-३० ) में देवी- स्थान के ये नाम हैं, यथा - कोलापुर, तुलजापुर, सप्त शृंग आदि । मत्स्य० ( १३।२६।५४ ) ने १०८ देवीस्थानों के नाम लिखे हैं । देवेश -- ( वाराणसी के अन्तर्गत ) पद्म० १।३७।९ । देवेश्वर - ( वाराणसी के अन्तर्गत) लिंग० (ती० क०, पृ० ६५) । (सम्भवतः कुरुक्षेत्र के मक्षत्र -- लिंग ० १।९२।१२९ पास) । ब्रुमचण्डेश्वर -- ( वाराणसी में एक लिंग) लिंग० १।९२।१३६ । द्रोण-- ( भारतवर्ष में एक पर्वत) मत्स्य० १२१ १३, भाग० ५।१९।१६, पद्म० ६।८।४५-४६ । द्रोणाश्रमपद ---- अनु० २५।२८ (ती० क०, पृ० २५६; 'द्रोणधर्म' पाठ आया है ) । द्रोणेश्वर - ( वाराणसी के अन्तर्गत ) लिंग० (ती० क०, पृ० ६६) । द्रोणी - (नदी) मत्स्य० २२।३७ ( यहाँ श्राद्ध अनन्त होता है ) । द्वादशादित्यकुण्ड२४ । - ( बदरी के अन्तर्गत ) वराह० १४१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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