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________________ १३६२ धर्मशास्त्र का इतिहास है कि विष्णु फल्गु में अव्यक्त रूप में, विष्णुपद में व्यक्ताव्यक्त रूप में एवं मूर्तियों में व्यक्त रूप में स्थित है (देखिए त्रिस्थलीसेतु, पृ० ३६५, प्रतिमास्वरूपी व्यक्तः)। ११०वें अध्याय में गयायात्रा का वर्णन है। गया के पूर्व में महानदी (फल्गु) है। यदि वह सूखी हो, तो गड्ढा खोदकर (काण्ड बनाकर) स्नान करना चाहिए और अपनी वेद-शाखा के अनुसार तर्पण एवं श्राद्ध करना चाहिए, किन्तु अर्घ्य (सम्मान के लिए जल देना) एवं आवाहन नहीं करना चाहिए। अपराह्न में यात्री को प्रेतशिला को जाना चाहिए और ब्रह्मकुण्ड में स्नान करना चाहिए, देवों का तर्पण करना चाहिए, वायु० (११०।१०-१२) के मन्त्रों के साथ प्रेतशिला पर अपने सपिण्डों का श्राद्ध करना चाहिए तथा अपने पितरों को पिण्ड देने चाहिए। अष्टकाओं एवं वृद्धिश्राद्ध में, गया में एवं मृत्यु के वार्षिक श्राद्ध में अपनी माता के लिए पृथक् श्राद्ध करना चाहिए किन्तु अन्य अवसरों पर अपने पिता के साथ श्राद्ध करना चाहिए। अपने पितरों के अतिरिक्त अन्य सपिण्डों को उस स्थान से जहाँ अपने पिता आदि का श्राद्ध किया जाता है, दक्षिण में श्राद्ध करना चाहिए, अर्थात कुश फैलाने चाहिए, एक बार तिलयुक्त जल देना चाहिए, जौ के आटे का एक पिण्ड देना चाहिए और मन्त्रोचारग (वायु० ११०।२१-२२) करना चाहिए। गयाशिर में दिये जानेवाले पिण्ड का आकार मुष्टिका या आर्द्रामलक (हरे आमले) या शमी पेड़ के पत्र के बराबर होना चाहिए।२२ इस प्रकार व्यक्ति सात गोत्रों की रक्षा करता है, अर्थात् अपने पिता, माता, पत्नी, बहन, पुत्री, फूफी (पिता की बहिन) एवं मौसी के गोत्रों की रक्षा करता है। तिलयुक्त जल एवं पिण्ड नाना के पक्ष के सभी लोगों को, सभी बन्धुओं, सभी शिशुओं, जो जलाये गये हों या न जलाये गये हों, जो बिजली या डाकुओं से मारे गये हों, या जिन्होंने आत्महत्या कर ली हो, या जो भांति-भाँति के नरकों की यातनाएँ सह रहे हों या जो दुष्कर्मों के फलस्वरूप पशु, पक्षी, कीट, पतंग या वृक्ष हो गये हों, उन सभी को देने चाहिए (त्रायु ०११०।३०-३५) । इस विषय में देखिए इस खंड के अध्याय ११ एवं १२। १११वें अध्याय में कतिपय तीर्थों की यात्रा करने का क्रम उपस्थित किया गया है। पूरी यात्रा सात दिनों में समाप्त होती है। ११०वें अध्याय में कहा गया है कि गया में प्रवेश करने पर यात्री फल्गु के जल में स्नान करता है, तर्पण एवं श्राद्ध करता है और उसी दिन वह प्रेतशिला (जो वायु० १०८।१५ के अनुसार शिला का एक भाग है) पर जाता है और श्राद्ध करता है तथा पके हुए भात एवं घी के पिण्ड देता है (वायु० ११०।१५)। ऐसा करने से जिसके लिए श्राद्ध किया जाता है वह प्रेत-स्थिति से छुटकारा पा जाता है। वायु० (१०८।१७-२२) में ऐसा कहा गया है कि रामतीर्थ में, जो उस स्थान पर है जहाँ फल्ग प्रभास पर्वत से मिलती हैं, स्नान करना चाहिए। रामतीर्थ में स्नान करने, श्राद्ध करने एवं पिण्ड देने से वे व्यक्ति जिनके लिए ऐसा किया जाता है, पितर लोगों (प्रेतशिला पर श्राद्ध करने से जो प्रेतत्व की स्थिति से मुक्त हो गये रहते हैं) की श्रेणी में आ जाते हैं। प्रेतशिला के दक्षिण एक पर्वत पर यमराज, धर्मराज एवं श्याम तथा शबल नामक दो कुत्तों को बलि (कुश, तिल एवं जल के साथ भोजन की) देनी चाहिए। गया में प्रवेश करने के दूसरे दिन यात्री को प्रेतपर्वत पर जाना चाहिए, ब्रह्मकुण्ड में स्नान एव तर्पण करके श्राद्ध में तिल, घृत, दही २२. अष्टकासु च वृद्धौ च गयायां च मृतेहनि। मातुः श्राद्धं पृथक कुर्यादन्यत्र पतिना सह ॥ वायु० (११०।१७; तीर्थप्र०, ५० ३८९ एवं तीर्थचि०, पृ० ३९८)। २३. मुष्टिमात्रप्रमाणं च आर्द्रामलकमात्रकम् । शमीपत्रप्रमाणं वा पिण्डं दद्याद् गयाशिरे॥ उद्धरेत्सप्त गोत्राणि कुलानि शतमुद्धरेत् ।। पितुर्मातुः स्वभार्याया भगिन्या दुहितुस्तथा । पितृष्वसुर्मातृष्वसुः सप्त गोत्राः प्रकीर्तिताः ॥ वायु० (११०।२५-२६)। और देखिए त्रिस्थलीसेतु (पृ० ३२७)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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