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________________ १३३० धर्मशास्त्र का इतिहास आदि पुराणों में प्रयाग के विषय में सैकड़ों श्लोक हैं, किन्तु कल्पतरु (तीर्थ) ने, जो तीर्थ सम्बन्धी सबसे प्राचीन निबन्ध है, केवल मत्स्य ० ( १०४११-१३ एवं १६ - २०; १०५११-२२; १०६ । १-४८; १०७/२-२१; १०८३-५, ८- १७ एवं २३-२४; १०९।१०-१२; ११० १११११।८-१०, कुल मिलाकर लगभग १५१ श्लोक एवं वनपर्व अध्याय ८५ ।७९-८७ एवं ९७ ) को उद्धृत किया है और कहीं भी व्याख्या या विवेचन के रूप कुछ भी नहीं जोड़ा है। किन्तु अन्य निबन्धों ने पुराणों से खुलकर उद्धरण दिये हैं और कई विषयों पर विशद विवेचन उपस्थित किया है। हम कुछेक बातों की चर्चा यहाँ करेंगे। एक प्रसंग है प्रयाग में वपन या मुण्डन का । गंगावा वली ( पृ० २९८ ) एवं तीर्थप्रकाश ( पृ० ३३५ ) का कथन है कि यद्यपि कल्पतरु के लेखक ने प्रयाग में वपुन के विषय में कुछ नहीं लिखा है, किन्तु शिष्टों एवं निबन्धकारों ने इसे अनिवार्य ठहराया है। अधिकांश लेखकों ने दो श्लोकों का हवाला दिया है--प्रयाग में वपन कराना चाहिए, गया में पिण्डदान, कुरुक्षेत्र में दान और वाराणसी में (धार्मिक) आत्महत्या करनी चाहिए। यदि किसी ने प्रयाग में वपन करा लिया है तो उस व्यक्ति के लिए गया में पिण्डदान, काशी में मृत्यु या कुरुक्षेत्र में दान करना अधिक महत्व नहीं रखता।" इन श्लोकों के अर्थ, रात्रिसत्र न्याय (निर्णय) के प्रयोग एवं वपन के फल के विषय में विशद विवेचन उपस्थित किया गया है। हम स्थानाभाव से यह सब नहीं लिखेंगे । त्रिस्थलीसेतु ( पृ०१७ ) के मत से श्लोक केवल प्रयाग में वपन की प्रशंसा मात्र करता है और इससे जो फल प्राप्त होता है वह है पापमुक्ति । इसने इन श्लोकों के विषय में रात्रिसत्र न्याय के प्रयोग का खण्डन किया है। किन्तु तीर्थचि ० ( पृ०३२ ) ने इस न्याय का प्रयोग किया है।" त्रिस्थलीसेतु द्वारा उपस्थापित कुछ निष्कर्ष ये हैं कि प्रयाग की एक ही यात्रा में (भले ही व्यक्ति वहाँ कुछ दिन ठहरे) धार्मिक मुण्डन केवल एक बार होता है, विधवाओं को भी मुण्डन कराना होता है, सधवाएँ केवल अपने जूड़े से दो या तीन अंगुल बाल कटाकर त्रिवेणी में छोड़ देती हैं और उपनयन संस्कार- विहीन किन्तु चौल- कर्मयुक्त बच्चे भी मुण्डन कराते हैं ( पृ० २३-२४) । त्रिस्थलीसेतु ( पृ० २२) का कथन है कि कुछ सम्प्रदायी गण, कुछ वचनों पर विश्वास करके कि व्यक्ति के केशों में पाप लगे रहते हैं, कहते हैं कि दो तीन बाल-गुच्छों का वपन केवल कर्तन मात्र होगा न कि मुण्डन; सधवाओं को भी प्रयाग में ३४. प्रयागे वपनं कुर्याद् गयायां पिण्डपातनम् । दानं दद्यात् कुरुक्षेत्रे वाराणस्यां तनुं त्यजेत् ।। किं गयापिण्डदानेन काश्यां वा मरणेन किम् । किं कुरुक्षेत्रदानेन प्रयागे वपनं यदि || गंगावा ० ( पृ० २९८ ) ; तीर्थचि ० ( १० ३२ ) ; त्रिस्थली ० ( पृ० १७ ) ; तीथप्र० ( पृ० ३३५) । ये दोनों श्लोक नारदीय० ( उत्तर, ६३।१०३-१०४) के हैं । ३५. रात्रि सत्र न्याय की चर्चा जैमिनि० (४।३।१७-१९ ) में हुई है। पंचविंश ब्राह्मण ( २३।२१४ ) में आया है--' प्रतितिष्ठन्ति य एता रात्रीरुपयन्ति' यहाँ पंचविंश में रात्रिसत्र की व्यवस्था तो है, किन्तु स्पष्ट रूप से किसी फल की चर्चा नहीं की गयी है । प्रश्न उठता है; क्या किसी स्पष्ट फल के उद्घोष के अभाव में स्वर्गप्राप्ति के फल को समझ लिया जाय। क्योंकि जैमिनि० ४।३।१५-१६ ने व्याख्या की है कि जहाँ किसी फल की स्पष्ट उक्ति न हुई हो, उस यज्ञ सम्पादन का फल स्वर्ग-प्राप्ति समझना चाहिए ? या प्रतिष्ठा (स्थिर स्थिति) को, जो उपर्युक्त अर्थवाद में आया है, रात्रिसत्र का फल माना जाय ? उत्तर यह है कि यहाँ फल प्रतिष्ठा है न कि स्वर्ग, अर्थात् यद्यपि रात्रिसत्र के विषय में किसी स्पष्ट फल का उल्लेख नहीं है, किन्तु अर्यवाद-वचन को फल व्यवस्था का द्योतक समझना चाहिए। दोनों श्लोकों में 'प्रयागे वपनं कुर्यात् ' के शब्दों में विधि है और दूसरा श्लोक अर्थवाद है। प्रश्न यह है कि कौन-सा फल मिलता है। यदि रात्रि सत्र न्याय का प्रयोग किया जाय तो मुण्डन से गयापिण्डदान, कुरुक्षेत्रदान एवं काशीतनुत्याग के फल प्राप्त होते हैं। किन्तु यदि इसका प्रयोग न किया जाय तो पापाभाव ही फल है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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