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धर्मशास्त्र का इतिहास
ब्रह्म० का कथन है-प्रकृष्टता के कारण यह प्रयाग है और प्रधानता के कारण यह 'राज' शब्द (तीर्थराज ) से युक्त है । २५
'प्रयागमण्डल', 'प्रयाग' एवं 'वेणी' (या 'त्रिवेणी') के अन्तर को प्रकट करना चाहिए, जिनमें आगे का प्रत्येक पूर्व वाले से अपेक्षाकृत छोटा किन्तु अधिक पवित्र है । मत्स्य ० " का कथन है कि प्रयाग का विस्तार परिधि में पाँच योजन है और ज्यों ही कोई उस भूमिखण्ड में प्रविष्ट होता है, उसके प्रत्येक पद पर अश्वमेध का फल होता है । त्रिस्थली सेतु ( पृ० १५) में इसकी व्याख्या यों की गयी है-- यदि ब्रह्मयूप ( ब्रह्मा के यज्ञस्तम्भ ) को खूंटी मानकर कोई डेढ़ योजन रस्सी से चारों ओर मापे तो वह पाँच योजन की परिधि वाला स्थल प्रयागमण्डल होगा । वनपर्व, मत्स्य ० ( १०४/५ एवं १०६ । ३०) आदि ने प्रयाग के क्षेत्रफल की परिभाषा दी है - 'प्रयाग का विस्तार प्रतिष्ठान से वासुकि के जलाशय तक है और कम्बल नाग एवं अश्वतर नाग तथा बहुमूलक तक है; यह तीन लोकों में प्रजापति के पवित्र स्थल के रूप में विख्यात है ।' मत्स्य ० ( १०६ । ३०) ने कहा है कि गंगा के पूर्व में समुद्रकूप है, जो प्रतिष्ठान ही है । त्रिस्थलसेतु ने इसे यों व्याख्यात किया है -- पूर्व सीमा प्रतिष्ठान का कूप है, उत्तर में वासुकिह्रद है, पश्चिम में कम्बल एवं अश्वतर : हैं और दक्षिण में बहुमूलक है। इन सीमाओं के भीतर प्रयाग तीर्थ है। मत्स्य ० ( कल्पतरु, तीर्थ, पृ० १४३ ) के मत से दोनों नाग यमुना के दक्षिणी किनारे पर हैं, किन्तु मुद्रित ग्रन्थ में 'विपुले यमुनातटे' पाठ है। किन्तु प्रकाशित पद्म ० ( ११४३ / २७ ) से पता चलता है कि कल्पतरु का पाठान्तर ( यमुना- दक्षिणे तटे) ठीक है। वेणी क्षेत्र प्रयाग के अन्तर्गत है और विस्तार में २० धनु है, जैसा कि पद्म० में आया है।" यहाँ तीन पवित्र कूप हैं, यथा प्रयाग, प्रतिष्ठानपुर एवं अलर्कपुर में मत्स्य ० एवं अग्नि० का कथन है कि यहां तीन अग्निकुण्ड हैं और गंगा उनके मध्य से बहती है । जहाँ भी कहीं पुराणों में स्नान स्थल का वर्णन (विशिष्ट संकेतों को छोड़कर) आया है, उसका तात्पर्य है वेणी-स्थल-स्नान और वेणी का तात्पर्य है दोनों (गंगा एवं यमुना ) का संगम । " वनपर्व एवं कुछ पुराणों के मत
२५. प्रभावात्सर्वतीर्थेभ्यः प्रभवत्यधिकं विभो । मत्स्य० (११०।११) । प्रकृष्टत्वात्प्रयागोसौ प्राषान्याद्राजशब्दवान् । ब्रह्मपुराण (त्रिस्थलीसेतु, पृ० १३ ) ।
२६. पञ्चयोजनविस्तीर्णं प्रयागस्य तु मण्डलम् । प्रविष्टमात्रे तद्भूमावश्वमेधः पदे पदे ॥ मत्स्य ० ( १०८/९-१०, १११८ ) ; पद्म० ( ११४५१८ ) । कूर्म० (२१३५१४) में आया है -- पंचयोजनविस्तीर्ण ब्रह्मणः परमेष्ठिनः । प्रयागं प्रथितं तीर्थं यस्य माहात्म्यमीरितम् ॥
२७. आ प्रयाग प्रतिष्ठानाद्यत्पुरा वासुकेदात् । कम्बलाश्वतरौ नागौ नागश्च बहुमूलकः । एतत् प्रजापतेः क्षेत्र त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् । मत्स्य ० ( १०४|५ ) ; पद्म० (११३९।६९-७०, ४१।४-५ ) में भी यही बात कही गयी है। वनपर्व ( ८५/७६-७७) में आया है--' प्रयागं सप्रतिष्ठानं कम्बलाश्वतरावुभौ । तीर्थं भोगवती चैव वेदिरेषा प्रजापतेः ॥ तत्र वेदाश्च यज्ञाश्च मूर्तिमन्तो युधिष्ठिर । अग्नि० ( १११।५ ) में भी आया है- 'प्रयाग ... प्रजापतेः' (यहाँ 'बेदी प्रोक्ता' पढ़ा गया है) ।
२८. माघः सितासिते विप्र राजसूयैः समो भवेत् । धनुविंशतिविस्तीर्णे सितनीलाम्बुसंगमे ॥ इति पाप्रोक्तेः । त्रिस्थलोसेतु ( पृ०७५) । सितासित (श्वेत एवं नील) का अर्थ है 'वेणी' । 'धनु' का माप बराबर होता है चार हाथों या ९६ अंगुलों के ।
२९. तत्र त्रीण्यग्निकुण्डानि येषां मध्येन जाह्नवी । वनपर्व ( ८५।७३); त्रीणि चाप्यग्निकुण्डानि येषां मध्ये जाह्नवी | मत्स्य० (११०१४), अग्नि० (१११।१२) एवं पद्म० ( १ ३९।६७ एवं १।४९।४) । मत्स्य ० ( १०४ । १३ ) एवं कूर्म ० ( ११३६।२८-२९) ने 'पञ्च कुण्डानि' पढ़ा है।
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