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तीर्थयात्रियों के लिए जलाशयादि-निर्माण का फल; तीर्थ-तट पर निर्मलता; तीर्थ-द्विज की श्रेष्ठता १३१७ निर्माण किया है और यात्रियों एवं जन-साधारण के सुविधार्थ उन्होंने मार्गों के किनारों पर वृक्ष लगाये हैं। प्रभासखण्ड में आया है कि जो धनिक व्यक्ति अन्य को धन या यान द्वारा तीर्थयात्रा की सुविधा देता है वह तीर्थयात्राफल का चौथाई भाग पाता है।८ ।।
रघुनन्दनकृत प्रायश्चित्ततत्त्व ने ब्रह्माण्डपुराण से उद्धरण देकर उन १४ कर्मों का उल्लेख किया है जिन्हें गंगा के तट पर त्याग दिया जाता है, जो निम्न हैं--शौच (शरीर-शुद्धि के लिए अति सूक्ष्मता पर ध्यान देना, अर्थात् शरीर को रगड़-रगड़कर स्वच्छ करना या तेल-साबुन लगाना आदि), आचमन (दिन में कई अवसरों पर ऐसा करना), केश-शृंगार, निर्माल्य धारण (देवपूजा के उपरान्त पुष्पों का प्रयोग), अघमर्षण सूक्त-पाठ (ऋ० १९०११-३), देह मलवाना, क्रीडा-कौतुक, वानप्रहण, संभोग-कृत्य, अन्य तीथं को भक्ति, अन्य तीर्थ की प्रशंसा, अपने पहने हुए वस्त्रों का दान, किसी को मारना-पीटना एवं तीर्थजल को तैरकर पार करना।
एक बात ज्ञातव्य है कि यद्यपि मनु (३।१४९) ने श्राद्ध में आमन्त्रित होनेवाले ब्राह्मणों के कुल एवं विद्याज्ञान के सूक्ष्म परीक्षण की बात उठायी है, किन्तु कुछ पुराणों ने ऐसी व्यवस्था दी है कि तीर्थों में ब्राह्मणों की योग्यता की परीक्षा की बात नहीं उठानी चाहिए। इस पौराणिक उक्ति का समर्थन कल्पतरु (तीर्थ, पृ० १०), तीर्थचि० (पृ० १०), तीर्थप्र० (पृ०७३) आदि निबन्धों ने भी किया है। तीर्थप्र० ने इतना कह दिया है कि उन ब्राह्मणों को त्याग देना चाहिए जिनके दोष ज्ञात हों और जो घृणा के पात्र हों। वराह० (१६५।५७-५८) ने कहा है कि मथुरा के यात्री को चाहिए कि वह मथुरा में उत्पन्न एवं पालित-पोषित ब्राह्मणों को चारों वेदों के ज्ञाता ब्राह्मण की अपेक्षा वरीयता दे।" और देखिए वायु० (८२।२६-२८), स्कन्द० (६।२२२२३) । वायु० (८२।२५-२७) में आया है कि जब पुत्र गया जाय तो उसे ब्रह्मा द्वारा प्रकल्पित ब्राह्मणों को ही आमन्त्रित करना चाहिए, ये ब्राह्मण साधारण लोगों से ऊपर (अमानुष) होते हैं, जब वे सन्तुष्ट हो जाते हैं, तो देवों के साथ पितर लोग भी सन्तुष्ट हो जाते हैं, उनके कुल, चरित्र, ज्ञान, तप आदि पर ध्यान नहीं देना चाहिए और जब वे (गया के ब्राह्मण अर्थात् गयावाल) सम्मानित होते हैं तो कृत्यकर्ता (सम्मान देनेवाला) संसार से मुक्ति पाता है। वायु० (१०६।७३-८४), अग्नि० (११४।३३-३९) एवं गरुड़० में ऐसा वर्णित है कि जब गयासुर गिर पड़ा और जब उसे विष्णु द्वारा वरदान प्राप्त हो चुके तो उसके उपरान्त ब्रह्मा ने गया के ब्राह्मणों को ५५ ग्राम दिये और पाँच कोसों तक विस्तृत गयातीर्थ दिया, उन्हें सुनियक्त घर, कामधेन गौएं, कल्पतरु दिये, किन्तु यह भी आज्ञापित किया कि वे न तो भिक्षा माँगें और न किसी से दान ग्रहण करें। किन्तु लोभवश ब्राह्मणों ने धर्म (यम) द्वारा सम्पादित यज्ञ में पौरोहित्य किया, यम से दक्षिणायाचना की और उसे ग्रहण कर लिया। इस पर ब्रह्मा ने उन्हें शाप दिया कि वे सदा ऋण में रहेंगे और उनसे कामधेनु, कल्पवृक्ष एवं अन्य उपहार छीन
५८. यश्चान्यं कारयेत् शक्त्या तीर्थयात्रा तथेश्वरः । स्वकीयद्रव्ययानाभ्यां तस्य पुण्यं चतुर्गुणम्॥प्रभासखण्ड (तीर्यप्र०, पृ० ३६)। तीर्थ प्राप्यानुषंगेण स्नानं तीर्ये समाचरेत् । स्नानजं फलमाप्नोति तीर्थयात्राफलं न तु ॥ शंख (८३१२); स्मृतिच० (१, पृ० १३२) एवं कल्पतरु (तीर्य, पृ० ११)। और देखिए पद्म० (६।२३७॥४१-४२) एवं विष्णुधर्मोत्तर० (३।२७१।१०)।
५९. चतुर्वेदं परित्यज्य माथुरं पूजयेत्सदा। मथुरायां ये वसन्ति विष्णुरूपा हि ते नराः॥ ज्ञानिनस्तान हि पश्यन्ति अज्ञाः पश्यन्ति तान्न हि। वराहपुराण (१६५।५७-५८)।
६०. यदि पुत्रो गयां गच्छेत्कदाचित्कालपर्ययात् । तानेव भोजयेद्विप्रान् ब्रह्मणा ये प्रकल्पिताः॥ अमानुषतया विप्रा ब्राह्मणा (ब्रह्मणा ? ) ये प्रकल्पिताः। वायु० (८२।२५-२७)।
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