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धर्मशास्त्र का इतिहास
देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २, अध्याय ६, जहाँ मातृकाओं एवं उनकी पूजा का वर्णन किया गया है।" अपरार्क (पृ. ५१७) ने उद्धरण दिया है कि ब्रह्माणी आदि सात माताओं की पूजा होनी चाहिए और इसके उपरान्त अपनी माता, पितामही एवं प्रपितामही की पूजा होनी चाहिए, तब नान्दीमख पितरों, मातामहों एवं पितरों की पत्नियों की पूजा होनी चाहिए। वीरमित्रोदय के श्राद्ध-प्रकाश ने वृद्ध वसिष्ठ को इस विषय में उद्धृत कर कहा है कि यदि मातृश्राद्ध (वृद्धिश्राद्ध के एक भाग) में ब्राह्मणों की पर्याप्त संख्या न प्राप्त हो सके तो माताओं एवं मातामहियों के वर्गों के लिए (प्रत्येक वर्ग के लिए) सधवा एवं पुत्र या पुत्रों वाली चार नारियों को भोजन के लिए आमन्त्रित करना चाहिए और उनका सम्मान करना चाहिए।
प्रतिसांवत्सरिक या प्रत्याग्दिक श्राद्ध पर हमने ऊपर विस्तार से पढ़ लिया है। इसका सम्पादन मृत्यु-तिथि पर प्रति वर्ष होता है (गोभिलस्मृति ३३६६) । ऐसी व्यवस्था दी गयी है कि माता-पिता के विषय में यह श्राद्ध पार्वण की विधि ग्रहण करता है (श्राद्धतत्त्व, पृ०३०४)। भविष्य एवं स्कन्द० का कथन है कि सांवत्सरिक श्राद्ध का अन्य श्राद्धों में सबसे अधिक महत्त्व है और यदि कोई पुत्र माता-पिता के मृत्यु-दिन पर वार्षिक श्राद्ध नहीं करता तो वह तामिस्र नामक भयानक नरक में जाता है और फिर जन्म लेकर नगर-सूकर होता है। इस विषय में तिथि, मास या दोनों की जानकारी न हो तो तदर्थ बृहस्पति, स्कन्द०, पद्म० एवं भविष्य ने कुछ नियम दिये हैं--(१)यदि तिथि ज्ञात हो किन्तु मास नहीं तो मार्गशीर्ष या माघ मास में उस तिथि पर श्राद्ध करना चाहिए; (२) यदि मास ज्ञात हो किन्तु तिथि नहीं तो उस मास की अमावास्या को श्राद्ध करना चाहिए; (३) यदि तिथि एवं मांस दोनों न ज्ञात हों तो तिथि एवं मास की गणना व्यक्ति के घर से प्रस्थान करने से होनी चाहिए; (४) यदि प्रस्थान-काल भी न ज्ञात हो सके तो जब सम्बन्धी की मृत्यु का सन्देश मिले तभी से तिथि एवं मास की गणना करनी चाहिए। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि पित्र्य कृत्यों के लिए मास चान्द्र (प्रस्तुत उद्धरणों में अगान्त मास लिया गया है-सं०) होता है और 'दिन',
पितृन् पूज्य ततो मातामहानपि । मातामहीस्ततः केचिद्युग्मा भोज्या द्विजातयः॥ (अपरार्क, पृ० ५१७) । गोभिलस्मृति (१११११२) द्वारा उपस्थापित १४ मातृका ये हैं-गौरी, पद्मा, शची, मेधा, सावित्री, विजया, जया, देवसेना, स्वधा, स्वाहा,धृति, पुष्टि, तुष्टि एवं अपनी कुलदेवी (अभीष्टदेवता)।मार्कण्डेय० में सात ये हैं ब्रह्माणी, माहेश्वरी, कौमारी, वाराही, नारसिंही, वैष्णवी एवं ऐन्द्री।
१७. धर्म के विभिन्न स्वरूपों में अत्यन्त प्राचीन एवं बहुत विस्तृत पूजाओं के अन्तर्गत माता-देवी या मातादेवियों की पूजा भी है। मातृ-पूजा मेसोपोटामियाएवं सीरिया-जैसे प्राचीन सभ्यताकालों तथा आदिकालीन यूरोप एवं पश्चिमी अफ्रीका में भी प्रचलित थी। आदिकालीन अथवा प्रागैतिहासिक संस्कृतियों से सम्बन्धित कुछ ऐसी भोंडी आकृतियाँ या प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं जो नारियों की हैं और कहा जाता है कि ये मातृ-देवियों की प्रतिमाएं हैं। देखिए श्री एस० के० दीक्षित कृत 'मदर गॉडेसेज' (पूना)।
१८. मातवर्गे मातामहीवर्गे वा ब्राह्मणालाभे पतिपुत्रान्विताश्चतनश्चतस्रः सुवासिन्यो भोजनीया इत्युक्तं वृक्षवसिष्ठेन। मातृश्रावे तु विप्राणामलाभे पूजयेदपि। पतिपुत्रान्विता भव्या योषितोऽष्टौ मुदान्विताः ॥ श्रावप्रकाश (पृ० २९८)।
१९. सर्वेषामेव श्रादानां श्रेष्ठं सांवत्सरं स्मृतम् । क्रियते यत्खगश्रेष्ठ मृतेऽहनि बुधैः सह ॥... स याति नरकं घोरं तामिस्त्रं नाम नामतः। ततो भवति दुष्टात्मा नगरे सूकरः खग॥ भविष्य० (१३१८३।२० एवं २५)। प्रथम श्लोक स्कन्द० (७.११२०५।४३) में भी आया है।
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