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लेपभागी पितरों एवं बलिवैश्वदेव- समय का विचार
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से आगे के तीन पूर्व-पुरुष) कहलाते हैं। " ऐसी ही व्यवस्था विष्णुधर्मसूत्र ( ७३१२२), वराहपुराण (१४१३६), गरुड़पुराण (आचारखण्ड २१८।२४ ) एवं कूर्मपुराण (२।२२।५२ ) में भी दी हुई है। मेधातिथि ( मनु ३ । २१६ ) का कथन है कि यदि हाथ में भोजन एवं जल न भी लगा हो तब भी कर्ता दर्भों (जिन पर प्रथम पिण्ड रखा गया था) की जड़ों से हाथ पोंछता है। श्राद्धकल्पलता ( पृ० १४ ) में उद्धृत देवल के कथन से एक विशिष्ट नियम यह ज्ञात होता है कि यदि पिता या माता बलवश या स्वेच्छा से म्लेच्छ हो जायँ तो उनके लिए आशौच नहीं लगता और उनके लिए श्राद्ध नहीं किया जाता तथा पिता के लिए दिये जानेवाले तीन पिण्डों के लिए विष्णु का नाम लिया जाना चाहिए।
प्रसिद्ध लेखकों के मन में एक प्रश्न उठता रहा है कि क्या आह्निक वैश्वदेव श्राद्धकर्म प्रारम्भ होने के पूर्व करना चाहिए या उसके पश्चात् । इस विषय में हमें स्मरण रखना होगा कि कुछ ग्रन्थों में आया है कि देवों की अपेक्षा पितर लोग पूर्व महत्त्व रखते हैं। मनु ( ३।२६५) का कथन है कि ब्राह्मणों के प्रस्थान के उपरान्त श्राद्धकर्ता को गृहबलि (प्रति दिन किया जानेवाला अन्न- अर्पण) करनी चाहिए, क्योंकि यही धर्मव्यवस्था है । मेधातिथि ने व्याख्या की है कि 'बलि' शब्द केवल प्रदर्शन या उदाहरण मात्र है। * मत्स्य० (१७६१), वराह० ( १४ | ४३ ), स्कन्द० (७/१/२६६।१०१-१०२), देवल, कार्ष्णाजिनि आदि का कथन है कि पितरों के कृत्य के उपरान्त वैश्वदेव करना चाहिए। जब श्राद्ध कृत्य के उपरान्त वैश्वदेव किया जाता है तो वह उस भोजन से किया जाता है जो श्राद्ध भोजन के उपरान्त शेष रहता है । किन्तु हेमाद्रि ( पृ० १०५८-१०६४) ने एक लम्बा विवेचन उपस्थित किया है और निम्न निष्कर्ष निकाले हैं। आहिताग्नि के विषय में वैश्वदेव श्राद्ध के पूर्व करना चाहिए; केवल मृत्यु के उपरान्त ११वें दिन के श्राद्ध को छोड़कर। किन्तु अन्य लोगों (जिन्होंने अग्न्याधान नहीं किया है) के लिए वैश्वदेव के विषय में तीन विकल्प हैं, यथा -- अग्नौकरण के पश्चात् या विकिर (उनके लिए दर्भों पर भोजन छिड़कना जो बिना संस्कारों के मृत हो गये हैं) के पश्चात् या श्राद्ध समाप्ति के उपरान्त ब्राह्मणों के चले जाने के पश्चात् ( पृ० १०६४) । यदि वैश्वदेव श्राद्ध के पूर्व या उसके मध्य में किया जाय तो वैश्वदेव एवं श्राद्ध के लिए पृथक्-पृथक् भोजन बनना चाहिए। सभी के लिए, चाहे वे साग्निक हों अथवा अनग्निक, यदि वैश्वदेव श्राद्धकर्म के पश्चात् हो तो उसका सम्पादन श्राद्ध कर्म से बचे भोजन से ही किया जाना चाहिए। पैठीनसि जैसे ऋषियों ने प्रतिपादित किया है कि श्राद्ध में आमन्त्रित ब्राह्मणों को भोजन देने के पूर्व श्राद्ध भोजन द्वारा वैश्वदेव कभी नहीं करना चाहिए, अर्थात् यदि वही भोजन ब्राह्मणभोजन के लिए बना हो तो वैश्वदेव श्राद्ध के उपरान्त ही करना चाहिए।" निर्णयसिन्धु ( ३, पृ० ४५९) का कथन है कि स्मृतियों में अधिकांश ने वैश्वदेव का सम्पादन श्राद्ध के उपरान्त माना है और यही बात बहुत से टीकाकारों एवं निबन्धकारों ने भी कही है (यथा मेधातिथि एवं स्मृतिरत्नावली ) । अतः सभी को श्राद्ध समाप्ति के उपरान्त वैश्वदेव करना चाहिए।
१०२. न्युध्य पिण्डांस्ततस्तांस्तु प्रयतो विधिपूर्वकम् । तेषु दर्भेषु तं हस्तं निमृज्याल्लेपभागिनाम् ॥ मनु ( ३।२१६) । अन्तिम आधा मत्स्य ० ( १६।३८) में भी आया है।
१०३ देवकार्याद् द्विजातीनां पितृकार्यं विशिष्यते । मनु ( ३।२०३ ) ; ब्रह्माण्ड ० ( उपोद्घातपाद, १०।१०४ ) ; मत्स्य ० ( १५/४० ) एवं वायु० (७३।५५) ।
१०४. ततो गृहबलिं कुर्यादिति धर्मो व्यवस्थितः । मनु ( ३।२६५) । मेधातिथि की व्याख्या यों है - 'ततो गृहबल निष्प श्राद्धकर्मण्यनन्तरं वैश्वदेवहोमान्वाहिकातिथ्यादिभोजनं कर्तव्यम् । बलिशब्दस्य प्रदर्शनार्थत्वात् ।'
१०५. पितॄणामनिवेद्य तस्मादनाद्वैश्वदेवादिकमपि न कार्यम् । तथा च पैठीनसिः । पितृपाकात्समुद्धृत्य वैश्वदेवं करोति यः । आसुरं तद् भवेच्छ्राद्धं पितॄणां नोपतिष्ठते ॥ स्मृतिच० ( श्रा०, पृ० ४१० ) ।
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